पूर्ण चाँदनी रात है, अगणित तारे संग !
अब विलम्ब क्यों है प्रिये , छेड़ें प्रेम प्रसंग!!
कनक बदन पर कंचुकी ,सुन्दर रूप अनूप !
वाणी में माधुर्य ज्यों , सरदी में प्रिय धूप !!
अद्भुत क्षण मेरे लिए,जब आये मनमीत !
ह्रदय बना वीणा सरस ,गाता है मन गीत !!
प्रेम न देखे जाति को ,सच कहता हूँ यार !
यह तो सुमन सुगंध सम ,इसका सहज प्रसार !!
विरह सिंधु में डूबता ,खोजे मिले न राह !
विकल हुआ अब ताकता,मन का बंदरगाह !!
प्रेम सुधाकर हैं उदित ,छेड़ सुहाने तान !
अधरों पर फिर से खिली ,वही मधुर मुस्कान !!
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राम शिरोमणि पाठक"दीपक"
मौलिक/अप्रकाशित
Comment
आदरणीय सौरभ जी, "उदित के त्रिकल से शब्द संयोजन का निर्वाह न होने को स्पष्ट कर कृतार्थ करे | सादर
प्रेम सुधाकर उदित हैं ,छेड़ सुहाने तान !
अधरों पर फिर से खिली ,वही मधुर मुस्कान !!
पहला विषम चरण अशुद्धता के बहुत निकट है. उदित के त्रिकल से शब्द के संयोजन का उचित ढंग से निर्वाह नहीं हो रहा है. उदित है की जगह है उदित अधिक उचित होता. ऐसा मैं क्यों कह रहा हूँ ???
आप अपने इस पोस्ट (दोहों पर टिप्पणी) पर मेरे हर कहे को पुनः पढ़ें और मेरे मंतव्य पर आपकी प्रतिक्रिया जाना चाहता हूँ. साथ ही, यह भी बतायें कि अंतिम दोहे पर किया गया प्रश्न कितना समीचीन है और उसका सही उत्तर क्या है.
अब और सुन्दर हो गया आपके कहे अनुसार... यानि आपके अनुसार कोई अंतर नहीं पड़ा !!!
प्रेम सुधाकर हैं उदित ,छेड़ सुहाने तान !
अधरों पर फिर से खिली ,वही मधुर मुस्कान !! इसे ऐसा किया मैंने
प्रेम सिंधु में डूबता ,खोजे मिले न राह !
विकल हुआ अब ताकता,मन का बंदरगाह !! यह गलत है
अद्भुत क्षण मेरे लिए,जब आये मनमीत !
ह्रदय बना वीणा सरस ,गाता है मन गीत !! अब और सुन्दर हो गया आपके कहे अनुसार
कनक बदन पर कंचुकी ,सुन्दर रूप अनूप !
वाणी में माधुर्य ज्यों , सरदी में प्रिय धूप !! अब ठीक है न आदरणीय
पूर्ण चाँदनी रात है, अगणित तारे संग !
अब विलम्ब क्यों है प्रिये , छेड़ें प्रेम प्रसंग!! इसे ऐसा कर लिया
आदरणीय सौरभ जी अपने विवेकानुसार इतना समझ पाया हूँ ///यदि कहीं गलती है तो कृपा कर मार्गदर्शन करें। । सादर
आदरणीय सौरभ जी आपकी प्रतिक्रया के एक एक शब्द मै ध्यान से पढ़ता हूँ …ऱहि बात वाह वाही कि तो मै इससे बचता हूँ। …आप सदैव सही व् उचित मार्गदर्शन करते रहे है आदरणीय। ।और मै अब वाह वाही के लिए नहीं लिखता। … आपकी प्रतिक्रिया जब आती है तब जाकर संतुष्टि मिलती है कि मै कितने पानी में हूँ, कहाँ गलती हुई,और क्या सुधार किया जा सकता है । ।इतना तो ज्ञात है कौन कितना सोचता है और किस तरह का कमेंट करता है ///अतः आप से यही निवेदन है मेरा सदा मार्गदर्शन करते रहें ,मुझे सीखना है और आगे बढ़ना है //// सादर प्रणाम
आपने मेरी टिप्पणी को कायदे से पढ़ा भी, रामभाईजी ?
यदि हाँ, तो फिर आप क्या समझे मेरी टिप्पणी से यह तो आपने साझा किया ही नहीं. मैंने अंतिम दोहे के संदर्भ में एक प्रश्न भी किया है उसके प्रति कुछ न कहना आपके नकार भाव को ही साझा कर रहा है.
भइये, ऐसा आभार संप्रेषण किस काम का कि कोई स्पष्ट समझ साझा न हो ?
यदि वाह-वाह का आग्रह इतना संघनीभूत है, जैसा कि कई बार मुझे प्रतीत होता है, तो मैं भी आगे से आपके हर कहे पर ’बहुत खूब’, ’वाह-वाह’ कह कर निकल जाऊँगा, जैसा कि कई जगहों पर कई स्वनामधन्यों के पोस्ट पर करने को बाध्य हो जाता हूँ. आपसब भी मस्त और मैं भी खुश !
आपभी इस मंच की प्रस्तुतियों पर जिस तरह की टिप्पणियाँ करते हुए दीखते हैं, वह कोई शुभ संकेत नहीं है.
शुभ-शुभ
आदरणीय सौरभ जी आपके इन अमूल्य सुझावों का मै ह्रदय से स्वागत करता हूँ... आपका अनुमोदन व् सुझाव सदैव कुछ न कुछ सीखा जाता है … ऐसे ही मार्गदर्शन करते रहे आदरणीय। । सादर प्रणाम
पूर्ण चाँदनी रात है, अगणित तारे संग !
अब विलम्ब क्यूँ हो प्रिये ,छेड़ो प्रेम प्रसंग !!
अब विलम्ब क्यों हो प्रिये है तो छेड़ें प्रेम प्रसंग अधिक उचित होगा. यदि अब विलम्ब क्यों है प्रिये तो छेड़ो प्रेम प्रसंग होगा. सही पद का चयन कर लें. क्यूँ न लिखा करें, यह शास्त्रीय शब्द नहीं है.
कनक बदन पर कंचुकी ,सुन्दर रूप अनूप !
वाणी में माधुर्य ज्यों ,शर्दी में प्रिय धूप !!
कनक बदन पर कंचुकी .. :-)) .. जय हो..
शर्दी को सरदी करियो भाई ! प्रिय धूप सरदी या सर्दी में ! या, नम धूप !!.. :-))
अद्भुत क्षण मेरे लिए,जब आये मनमीत !
ह्रदय बना वीणा सदृश ,गाता है मन गीत !!
सदृश को सरस कहें तो बात और उभर कर आयेगी. बढिया दोहा प्रयास.
प्रेम न देखे जाति को ,सच कहता हूँ यार !
यह तो सुमन सुगंध सम ,इसका सहज प्रसार !!
देखियेगा भाई.. आसार ठीक बने रहें आपके लिए... :-)))))))))))))))))))))))
प्रेम सिंधु में डूबता ,खोजे मिले न राह !
विकल हुआ अब ताकता,मन का बंदरगाह !!
ए भाई.. प्रेम सिंधु में डूबा हुआ क्यों विकल होगा ? या, क्यों विकल हो कर मन के बंदरगाह की ओर ताकेगा ? वो प्रेम सिंधु में ही डूब रहा है न..!! प्रेम के सात्विक स्वरूप को झुठलाता हुआ या उस पर प्रश्न चिह्न लगाता हुआ कथ्य है यह. सॉरी.
प्रेम सुधाकर उदित हैं ,छेड़ सुहाने तान !
अधरों पर फिर से खिली ,वही मधुर मुस्कान !!
पहला विषम चरण अशुद्धता के बहुत निकट है. उदित के त्रिकल से शब्द के संयोजन का उचित ढंग से निर्वाह नहीं हो रहा है. उदित है की जगह है उदित अधिक उचित होता. ऐसा मैं क्यों कह रहा हूँ ???
बधाई इस प्रस्तुति पर. किन्तु सुझावों पर दृष्टि डालेंगे ऐसी आशा है.
शुभ-शुभ
बहुत बहुत आभार आदरणीय विजय निकोर जी ... सादर
बहुत ही मनोहारी दोहे लिखे हैं, आदरणीय राम जी।
सादर,
विजय निकोर
बहुत बहुत आभार आदरणीया प्राची जी। ।सादर
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