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चीख सिलवटों की

निस्शब्द स्वरों के कानफोड़ू शोर

चिलचिलाते मौन की बेधती टीस

लगातार भींचती जाती दंत-पंक्तियों में घिर्री कसावट

माज़ी का गाहेबगाहे हल्लाबोल करते रहना..... ....

जब एकदम से सामान्य हो कर रह जाय.. 

तो फिर...

कागज़ के कँवारेपन को दाग़ न लगे भी तो कैसे?

आखिर जरिया भर है न बेचारा ..

/एक माध्यम भर../

कुछ अव्यक्त के निसार हो जाने भर का

महज़ एक जरिया ... ...और....

किसी जरिये की औकात आखिर होती ही क्या है ?

उसके हिस्से

उसे इस्तमाल कर आगे निकलजानेवालों के नक्शेकदम हुआ करते हैं... बस.

कागज़ का कोरापन

उसके बोसीदे वज़ूद के आगे हार ही जाये तो क्या.. ...

बेचारे का शफ्फ़ाक वज़ूद चुड़मुड़ा-चुड़मुड़ा जाये भी तो क्य़ा.. ...

सिलवटें कहीं हों ...

काग़ज़ पर..

या फिर... .. ओह.!..कहीं भी ..

निस्शब्द रातों की मौन चीख का विस्तार भर हुआ करती हैं..

 

--सौरभ

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on June 26, 2011 at 8:32pm

आपकी स्वीकृति ने उत्साहित किया है.

हार्दिक धन्यवाद.

Comment by sangeeta swarup on June 26, 2011 at 4:01pm

चिलचिलाते मौन की बेधती टीस

लगातार भींचती जाती दंत-पंक्तियों में घिर्री कसावट

मौन की चीख है जो झकझोर देती है ..सुन्दर अभिव्यक्ति 

 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on June 26, 2011 at 1:50pm

वन्दनाजी, रचना की भावना को मान देने के लिये. बहुत-बहुत आभार..

 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on June 25, 2011 at 9:34pm

आपने रचना की अंतर्धारा के बहाव को महसूस किया... गोते लगाये... मेरा मान बढ़ा है.

सहयोग बना रहे. इस अपेक्षा के साथ.... गणेशभाई, आपका हार्दिक धन्यवाद. 


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on June 25, 2011 at 9:19pm

//कागज़ के कँवारेपन को दाग़ न लगे भी तो कैसे?//

 

आहा, बहुत सुंदर , भाव को बहुत ही करीने से तराशा गया है | साहित्यकारों के हाथ में कागज़ आ जाये तो फिर उसका बच पाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है :-)

 

/

किसी जरिये की औकात आखिर होती ही क्या है ?

उसके हिस्से

उसे इस्तमाल कर आगे निकलजानेवालों के नक्शेकदम हुआ करते हैं... बस./

 

बहुत ही खुबसूरत अभिव्यक्ति | बहुत बहुत आभार सौरभ भईया |

 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on June 25, 2011 at 1:59pm

वीरेन्द्रजी, आपका बहुत-बहुत धन्यवाद. परस्पर सहयोग बना रहे.

.

Comment by Veerendra Jain on June 25, 2011 at 12:54pm
ek ek lafz ssedhe dil men utarta hai..bahut hi umda kavita....badhai sir...

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on June 25, 2011 at 12:51am

बहुत-बहुत धन्यवाद विवेकभाई.

रचना की अंतर्निहित धारा को महसूसने के लिये बहुत-बहुत धन्यवाद. 

रचनाओं के कई कोण और आयाम तो स्व-प्रकाशित एवं मुखर होते हैं, वहीं कुछ कोणों और आयामों की प्रतिध्वनियाँ सूक्ष्म तरंगों में होती हैं, जिनका होना अवश्य ही अव्यय भर नहीं हुआ करता. वाचन के क्रम में पाठक द्वारा उस अनहद की अनुभूति होना रचना की आत्मा को समझना होता है. जो किसी रचनाकर्मी के लिये पारितोषिक सदृश है.

आपका पुनः धन्यवाद.

Comment by विवेक मिश्र on June 25, 2011 at 12:15am

पढने के बाद यही सोच रहा हूँ कि लिखते वक़्त दिमाग में क्या-क्या आया होगा..

/सिलवटें कहीं हों ...

काग़ज़ पर..

या फिर.../- इस पंक्ति ने तो मानों पूरी कविता ही कह दी.. आप और आपकी गहरी सोच को सलाम.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on June 24, 2011 at 11:04pm

अरुणभाईजी,

आपकी प्रतिक्रिया ने मुझे बहुत अधिक उत्साहित किया है. हार्दिक धन्यवाद.

कृपया ध्यान दे...

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