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गज़ल - बे आसरा बना के हमें तू खिजा में रख - गिरिराज भंडारी

22  22  22  22  22  22    

 

कोई दीप जलाओ, कि अँधेरा यहाँ न हो ।

कभी रोशनी की बात चले तो गुमाँ न हो ।।

 

जो शय बढ़ा दे दूरियां उसको खुदी कहें ।

हर हाल में कोशिश रहे, ये दरमियां न हो ।।

 

है फ़िक्र ये कि पंछी उड़ें किस फलक पे अब।

ऐसा भी  ख़ौफ़नाक  कोई आसमाँ न हो ।।

 

उजड़ीं है कई आंधियों में बस्तियां मगर ।

जैसे ये घर उजड़ गया, कोई मकाँ न हो ।।

 

मंज़िल से जा मिले जो कभी राह तो मिले।

रस्तों में चाहे संग मिलें कहकशाँ न हो ।।

 

बे आसरा बना के हमें तू खिजा में रख ।

लेकिन जो बाग़ लूट ले वो बाग़बाँ न हो।।

 

हाँ, इस जहाने फानी में महमान हैं सभी,  

लेकिन ख़ुद अपने घर में कोई मेहमाँ न हो

***************************************
मौलिक एवँ अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Ravi Shukla on November 17, 2015 at 3:36pm

आदरणीय गिरिराज जी सादर प्रणाम फैलुन फैलुन की मात्रिक बह्र पर सुन्‍दर भावों की रचना हुई है

बे आसरा बना के हमें तू खिजा में रख ।

लेकिन जो बाग़ लूट ले वो बाग़बाँ न हो।।  ये शेर खास पसंद आया इसके लिये और पूरी ग़ज़ल के लिये दिली दाद कुबूल करें ।

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 17, 2015 at 2:32pm

आ० अनुज - बढ़िया गजल हुयी है . आपने जो मीटर दिया है  उस पर कुछ संदेह होता है  क्या मीटर सही है  पहला  शेर  मुझे युं लगता है- 22 22 22 22  21  21 2

1 2  2 1  2 2  22  22  1 2 1 2 ---मेरे ज्ञानवर्धन के लिए बताना चाहें . सादर .

Comment by Shyam Narain Verma on November 17, 2015 at 1:05pm
 इस सुंदर ग़ज़लक़े लिए हार्दिक बधाई

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