22 22 22 22 22 22
कोई दीप जलाओ, कि अँधेरा यहाँ न हो ।
कभी रोशनी की बात चले तो गुमाँ न हो ।।
जो शय बढ़ा दे दूरियां उसको खुदी कहें ।
हर हाल में कोशिश रहे, ये दरमियां न हो ।।
है फ़िक्र ये कि पंछी उड़ें किस फलक पे अब।
ऐसा भी ख़ौफ़नाक कोई आसमाँ न हो ।।
उजड़ीं है कई आंधियों में बस्तियां मगर ।
जैसे ये घर उजड़ गया, कोई मकाँ न हो ।।
मंज़िल से जा मिले जो कभी राह तो मिले।
रस्तों में चाहे संग मिलें कहकशाँ न हो ।।
बे आसरा बना के हमें तू खिजा में रख ।
लेकिन जो बाग़ लूट ले वो बाग़बाँ न हो।।
हाँ, इस जहाने फानी में महमान हैं सभी,
लेकिन ख़ुद अपने घर में कोई मेहमाँ न हो
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
आदरणीय गिरिराज जी सादर प्रणाम फैलुन फैलुन की मात्रिक बह्र पर सुन्दर भावों की रचना हुई है
बे आसरा बना के हमें तू खिजा में रख ।
लेकिन जो बाग़ लूट ले वो बाग़बाँ न हो।। ये शेर खास पसंद आया इसके लिये और पूरी ग़ज़ल के लिये दिली दाद कुबूल करें ।
आ० अनुज - बढ़िया गजल हुयी है . आपने जो मीटर दिया है उस पर कुछ संदेह होता है क्या मीटर सही है पहला शेर मुझे युं लगता है- 22 22 22 22 21 21 2
1 2 2 1 2 2 22 22 1 2 1 2 ---मेरे ज्ञानवर्धन के लिए बताना चाहें . सादर .
इस सुंदर ग़ज़लक़े लिए हार्दिक बधाई |
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