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कहने को दोस्त हैं बहुत

लेकिन दोस्त,

सच में 

तुम ही  "एक"  दोस्त थी मेरी

अपरिभाषित दिशाओं के पट खोल

सुविकसित कल्पनाओं को बहती हवाओं में घोल

मुझको अँधियाले ताल के तल से

प्रसन्नता की नभचुम्बी चोटी पर ले गई थी

वह तुम ही तो थी

हर हाल में मुझको

लगती थी अपनी

इतनी

कि मैं पैरों के घिसे हुए तलवों को

मन की फटी हुई चादर की सलवटों को

दिखाने में संकोच नहीं करता था...

सवाल ही नहीं उठता था

तुम इतनी अपनी जो थी

कभी कोई राज़ नहीं था

कोई बनावट नहीं थी

सफ़ाई थी, बस सफ़ाई

और थी अजीब अनोखी छलकती सादगी

हम दोनों की सच्चाई को जो

और सच कर देती थी

तुम्हारी नशीली हँसी की तरह

गुड़-सी बातों की तरह

पर अब बदले हुए माहौल में उलझे खयालों में

दोस्ती के धुआँसे खंडहरों में

ज़िन्दगी पलट गई

मानो सच्चाई सच्चाई न रही

दोस्ती के मिटे हुए घेरे के बाहर

उड़ती हुई धूल के बगूलों में

"आशना" और "बावफ़ा" होना

 अब एक खतरनाक ठहाका है

ज़िन्दगी के नए बड़े-बड़े दर्द

अनबने-अधबने नए रिश्तों के बीच

नि:सन्देह छटपटाहट और उलझाव

इस दोस्ती के न होने का आज

दुख शायद तुमको भी है

--------

-- विजय निकोर

(मौलिक व अप्रकाषित)

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Comment by Rahila on November 11, 2015 at 3:36pm
सच्चा दोस्त अगर किसी के जिदगीं में है तो वही इतनी खूबसूरत कविता लिख सकता है जैसे आपने लिखी आदरणीय विजय सर जी!एक -एक पंक्ति में जो अपनापन महसूस किया वो अवर्णनीय है।बहुत बधाई आपको इस बेहतरीन कविता के लिये ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on November 10, 2015 at 1:42pm

आदरणीय विजय निकोर सर, आपकी कविताओं से गुजरते हुए संवेदनाओं का जैसा गुबार मन में उठता है उसे शब्दों में बयाँ नहीं कर सकता है. बस रचना में पंक्ति दर पंक्ति बस बहते जाता हूँ. बहुत अपनी अपनी सी लगती है ये पंक्तियाँ. मेरे मन के किसी कोने में दबी संवेदनाओं को शाब्दिक करने के लिए हार्दिक आभार. नमन 

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