है खोया क्या किसे वो आज हर पल ढूँढ़ते हैं,
गगन में हैं हमारे पाँव भूतल ढूँढ़ते हैं ।
सभाओं में कोई चर्चा कोई मुद्दा नहीं है,
सभी नेपथ्य में बैठे हुए हल ढूँढते हैं ।
उन्हें होगा तज्रिबा भी कहाँ आगे सफर का,
वो सहरा में नदी, तालाब, दलदल ढूँढ़ते हैं ।
कहीं से खुल तो जाये कोठरी ये आओ देखें,
दरों पर खिडकियों पर कोई सांकल ढूँढ़ते हैं ।
यूँ भी बेकारियों का मसअला हो जायेगा हल,
जो अब तक खो दिया है चल उसे कल ढूँढ़ते हैं ।
यहाँ पर भी किसी दिन कोई लंगर सा लगा था,
ये बच्चे आज भी शायद वो पत्तल ढूँढ़ते हैं ।
सड़क पर जम गई यादों की पपड़ी देखिये तो,
इधर गुजरा हो शायद ख्वाब घायल ढूँढ़ते हैं ।
हैं निकले घोंसलों को छोड़ पहली बार बाहर,
परिंदे खो गए शायद उन्हें चल ढूँढ़ते हैं ।
जो कल तक पेड़ में लगने न देते कोई पत्ता,
बड़ी ही बेहयाई से वही फल ढूँढ़ते हैं ।
मौलिक व अप्रकाशित...
Comment
आदरणीय भुवन भाई, आपकी ग़ज़लों का तेवर तो सदा से बोलता हुआ रहा है. यही आपकी प्रस्तुतियों का कमाल है भी. अलबत्ता, भाषा के कारण कई बार कई कथ्य सटीक नहीं बन पाते. लेकिन आप जिस तरह से हिन्दी भाषा को निभा लेते हैं वह हम सभी के लिए गर्व का विषय है.
आपकी यह ग़ज़ल मुझे आकर्षित कर रही है कि मैं इस पर शेर दर शेर अपनी बात कहूँ--
है क्या खोया किसे वो आज हर पल ढूँढ़ते हैं, ............. इसे ’है खोया क्या’ कहें तो स्वर या लय स्वयं बन जायेगा.
गगन में हैं हमारे पाँव भूतल ढूँढ़ते हैं । ..
बहुत खूब मतला हुआ है आदरणीय भुवन भाई !
सभाओं में कोई चर्चा कोई मुद्दा नहीं है,
यहाँ नेपथ्य में से ही सभी हल ढूँढ़ते हैं ...
’में से ही’ अनावश्यक जैसा प्रतीत हो रहा है. ’सभी नेपथ्य में बैठे कई हल ढूँढते हैं’ जैसा कुछ किया जा सकता है.
तजुर्बे भी कहाँ उनको रहे होंगे सफ़र के,
वो सहरा में नदी, तालाब, दलदल ढूँढ़ते हैं ।
वाह ! कमाल किया है आपने !
कहीं से खुल तो जाये कोठारी ये आओ देखें, .. ......... ’कोठारी’ टंकण त्रुटि है. यह ’कोठरी’ ही होगा.
दरों पर खिडकियों पर कोई सांकल ढूँढ़ते हैं ।
बहुत खूब ! बहुत अच्छे ! वैसे ’खिड़कियों पर’ को क्या ’खिड़कियों में’ किया जा सकता है ?
यूँ भी बेकारियों का मुद्दआ हो जायेगा हल,
जो अब तक खो दिया है चल उसे कल ढूँढ़ते हैं ।
आपने इसी इसी ग़ज़ल में ’मुद्दा’ का प्रयोग किया है. अब उसी शब्द को ’मुद्दआ’ की तरह लेना उचित नहीं है. हर किसी को शब्दों को मनमाने ढंग से प्रयोग करने से परहेज़ करना चाहिये. आप नियत कर लें कि किस शब्द को कैसे लिखना है और उसी पर दृढ़ रहें. वर्ना ’तज़ुर्बा’ शब्द जिसका इसी ग़ज़ल के एक शेर में प्रयोग हुआ है, ग़लत हो जायेगा. उस हिसाब से सही शब्द ’तज़्रिबा’ है. न कि तज़ुर्बा.
यहाँ पर भी किसी दिन कोई लंगर सा लगा था,
ये भूखे आज भी शायद वो पत्तल ढूँढ़ते हैं ।
वाह वाह ! समाज का अंतर क्या खूब सामने आया है ! वैसे यदि ’भूखे’ को ’बच्चे’ कर दें तो कहन सटीक हो जायेगी. ऐसा मुझे लगता है. आप भी बताइयेगा.
सड़क पर जम गई यादों की पपड़ी देखिये तो,
इधर गुजरा हो शायद ख्वाब घायल ढूँढ़ते हैं ।
यह शेर अस्पष्ट है. यह और समय चाहता है, खयाल बहुत बढिय अहै. इसे और स्मय दीजिये, भाईजी.
हैं निकले घोंसलों को छोड़ पहली बार बाहर,
परिंदे खो गए शायद उन्हें चल ढूँढ़ते हैं ।
उला के हैं निकले को अवश्य थे निकले कर दें. अन्यथा व्याकरणजन्य दोष हो जायेगा.
बढिया शेर हो रहा है.
जो कल तक पेड़ में लगने न देते कोई पत्ता,
बड़ी ही बेहयाई से वही फल ढूँढ़ते है ।
उला बहुत अच्छा नहीं हो पाया भुवन भाई. इसे कुछ और कोण दीजिये. कोई पत्ता क्यों नहीम् रहने देगा ? या बच्चों की कारस्तानियों को लेकर कह रहे हैं. इस भाव को और व्यापक करना उचित होगा.
इस ग़ाल प्रस्तुति केलिए हार्दिक धन्यवाद और अशेष शुभकामनाएँ
बहुत बढ़िया ग़ज़ल हुई है आपको हार्दिक बधाई इस प्रस्तुति पर आदरणीय.
समकालीन सरोकारों पर सुन्दर और सशक्त ग़ज़ल , बधाई !
"
यहाँ पर भी किसी दिन कोई लंगर सा लगा था,
ये भूखे आज भी शायद वो पत्तल ढूँढ़ते हैं ।"....वाह बहुत खूब कहा है....बहुत ही उम्दा पेशकश रही है आपकी आदरणीय भुवन निस्तेज जी | दिली दाद !1
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