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संत्रास (लघुकथा) : रवि प्रभाकर

ढलती शाम के वक्त खचाखच भरी बस में सेंट की खूशबू में लबालब जैसे ही वह दो लड़कियां चढ़ी तो सभी का ध्यान उनके जिस्म उघाड़ू तंग कपड़ों की ओर स्वत ही खिंचता चला गया । बस की धक्कमपेल का नाजायज़ फायदा उठाते हुए कुछ छिछोरे किस्म के लड़के रह रह कर उन्हे स्पर्श करते हुए बीच बीच में कुछ असभ्य कमेंट भी कर रहे थे परन्तु वो दोनों लड़कियां इन सबसे बेपरवाह आपस में हँस-हँस कर बातें करने में व्यस्त थीं।
‘इधर बैठ जाओ बेटी !’ सीट पर बैठा हुआ एक बुर्जुग बच्चे को सीट से अपनी गोद में बिठा कर थोड़ा एक तरफ सरकता हुआ लड़की से बोला
‘अरे बैठा रह ताऊ ! लगता है बासी कढ़ी में उबाल आ रहा है’ लड़की उपहास करते हुए थोड़ी तेजी से बोली तो बस में सवार सभी यात्री भी उस बुर्जुग पर हंसने लगे और वो बुर्जुग झेंपकर सिर झुकाकर बैठ गया।
अगले स्टाॅप पर दोनों लड़कियां उतर गईं।
‘तूने तो अंकल के साथ बहुत ‘रूड बिहेव’ किया, उसने तो बैठने को सीट ही आॅफर की थी और तुझे ‘बेटी’ भी तो कहा ।’
‘मुझे चिढ़ है ‘बेटी' शब्द से... जिसने मुझे इस धंधे में ढकेला वो भी मुझे ‘बेटी’ ही कहता था। आंखों से अंगारे बरसाती हुयी वो बोली

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by विनय कुमार on July 21, 2015 at 12:52pm

बेहतरीन पंच लाइन , उम्दा शीर्षक | धोखा खाया इंसान किसी पर भरोषा नहीं करता , बहुत बहुत बधाई इस बेहतरीन लघुकथा पर आदरणीय रवि प्रभाकर जी ..

Comment by Omprakash Kshatriya on July 21, 2015 at 11:50am
आदरणीय रवि प्रभाकर जी
प्रणाम ।
आप ने बेटी शब्द से करंट का झटका दे दिया ।
बधाई आप को ।

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Comment by मिथिलेश वामनकर on July 21, 2015 at 11:27am

आदरणीय रवि जी, सर्वप्रथम तो लघुकथा के सटीक शीर्षक चयन पर हार्दिक बधाई. लघुकथा अपने शीर्षक को सार्थक करती हुई परत दर परत खुलती जाती है और पंचलाइन //‘मुझे चिढ़ है ‘बेटी' शब्द से... जिसने मुझे इस धंधे में ढकेला वो भी मुझे ‘बेटी’ ही कहता था।//  एक झन्नाटेदार सत्य को उद्घाटित करते हुए पाठक को अवाक कर देती है. इस शानदार प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई 

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