गज़ल....खार रचता आदमी....
बह्र... 2122 2122 212
खुद को खुद से कब समझता आदमी.
जीत कर जब हार कहता आदमी
मौन में संजीवनी तो है मगर
मैं हुआ कब चुप अकडता आदमी.
आस्मां के पार भी खुशियां दुखी,
हर कदम पर शूल सहता आदमी.
फूल-कलियां मुस्कराती हर समय,
देवता को भेंट करता आदमी.
आदमी ही आदमी को पूजता,
आचरण पशुता अखरता आदमी.
प्यार में सम्वेदना करुणा बहुत,
कीट, खग, पशु हित विलखता आदमी.
धर्म "सत्यम" के शिवा कुछ भी नहीं,
मैं, अहम वश खार रचता आदमी.
के0पी0 सत्यम / मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आ0 नरेंद्र सिन्हा भाईजी, आपका तहेदिल से शुक्रिया...सादर
आ0 कांता जी, आपने गज़ल की सच्चाई को समझा उसके लिये आपका तहेदिल से शुक्रिया..आभार .सादर
इस खूब सुन्दर गजल के लिए बधाई
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