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ग़ज़ल - फिल बदीह -- अब ज़रा सा मुस्कुराना आ गया ( गिरिराज भंडारी )

 2122    2122    212

क्या वही फिर से ज़माना आ गया ?

आदमी को दोस्ताना आ गया

 

शर्म उनकी आँखों मे दिखने लगी

इसलिये नज़रें चुराना आ गया

 

फ़िक्र अब करते नहीं यादों की हम

अब हमें उनको भुलाना आ गया

 

ऊब कर रोने से दिल को देखिये  

अब ज़रा सा मुस्कुराना आ गया

 

जब से बातिल हो गये अहबाब सब

आइनों से मुँह छिपाना आ गया

 

प्यार की फित्नागिरी तो देखिये - फित्नागिरी - जादूगरी

बेसुरों को गुनगुनाना आ गया

 

आप के पीछे चली आयी बहार

और मौसम शाइराना आ गया

 

हाथ कासे तक गया तो था मगर  -- कासा= भिक्षा पात्र

याद अपना फिर घराना आ गया

 

रफ़्ता रफ्ता रास्ता कटता गया

और अपना भी ठिकाना आ गया

*********************************

मौलिकेवँ अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Samar kabeer on June 17, 2015 at 4:45pm
जनाब गिरिराज भंडारी जी,आदाब,एक के बाद एक ख़ूबसूरत ग़ज़लों से नवाज़ रहे हैं आप,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाऐं ।

"प्यार की फित्नागिरी तो देखिये
बेसुरों को गुनगुनाना आ गया"

इस शैर में फ़ित्ना गिरी का अर्थ आपने जादूगिरि लिखा है,फ़ितना गिरी का अर्थ जादू गिरी नहीं होता इस का अर्थ होता है फ़साद पैदा करना,और जादू गिरी नहीं जादू गरी
मेरा मशविरा है कि फित्नागिरी के स्थान पर जादूगरी ही लिखिए ।
Comment by Shyam Narain Verma on June 17, 2015 at 4:35pm
बहुत खूब ॥ आपको हार्दिक बधाइयाँ ॥

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