For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

रे पथिक, रुक जा! ठहर जा!....................एक गीत (डॉ० प्राची)

रे पथिक, रुक जा! ठहर जा! आज कर कुछ आकलन

बाँच गठरी कर्म की औ’ झाँक अपना संचयन

 

हैं यहाँ साथी बहुत जो संग में तेरे चले

स्वप्न बन सुन्दर सलोने कोर में दृग की पले,

प्रीतिमय उल्लास ले सम्बन्ध संजोता रहा  

या कपट,छल,तंज से निर्मल हृदय तूने छले ?

 

ऊर्ध्वरेता बन चला क्या मुस्कुराहट बाँटता ?

छोड़ आया ग्रंथियों में या सिसकता सा रुदन ?.......रे पथिक..

 

कर्मपथ होता कठिन, तप साधता क्या तू रहा ?

या नियतिवश संग लहरों के सदा बेबस बहा ?

लक्ष्यहित उन्मुख हृदय नें राह शुचिकर ही चुनी,

या उसूलों से डिगा मन लोभवश पल में ढहा ?

 

वासना के जाल में आबद्ध हर इक श्वास से, 

बावरे लिख तो नहीं डाला कहीं अपना पतन ?.......रे पथिक..

 

संतुलन का खेल केवल यह जगत व्यवहार है,

साध लें तो नव-सृजन वरना कुटिल संघार है,

मनस वाचन कर्म में हो ऐक्य, निश्छल भावना-

सूत्र सद्आधार सम देता सदा विस्तार है..

 

बन्धनों से रुद्ध प्रतिपल क्यों रहे आवागमन ?

मुक्ति के उच्छ्वास से चल आज लिख ले उन्नयन...... रे पथिक..

(मौलिक और अप्रकाशित)

Views: 1060

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on May 14, 2015 at 7:13pm

आ० डॉ० विजय शंकर जी 

प्रस्तुति पर आपकी विषद सराहना के लिये हृदय से आभार 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on May 14, 2015 at 7:11pm

आ० सौरभ जी 

गीत को शब्द देने के क्रम में ... किस तरह लेखक के अंतर्मन की झंकार कतरा कतरा बहती पन्नों में उतर आती है.. रचना पर आपकी प्रतिक्रया उसका आईना बन कर ही सामने है..

//गीतके शब्द सहज हैं, तत्सम शब्दों के बीच विदेसज शब्दों का सुरुचिपूर्ण चयन आश्वस्त करता है कि गीत का हेतु शुद्धरूपेण संप्रेषण है, लक्ष्य मानव है, न कि आत्ममुग्धता के वाग्जाल का अन्यथा विस्तार.//................गीत के हेतु को मुखर कर आपने लेखन के प्रति आश्वस्त किया है आदरणीय.

'संग में' वाली पंक्ति में अवश्य ही कुछ बदलाव करती हूँ.

सादर धन्यवाद 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on May 14, 2015 at 7:02pm

आदरणीय मिथिलेश जी 

गीत को पंक्ति दर पंक्ति शब्द दर शब्द जिस तरह गुनते हुए आप झूमते गए... ऐसी पाठनीयता को नमन 

आपके अनुमोदन से लेखन सार्थक हुआ प्रतीत होता है... पंक्तियाँ वस्तुतः एक चेतना को, एक ऊर्जा को सांझा करती हैं ... यदि वह ऊर्जा ही पाठक तक संप्रेषित हो उन्हें आनंदित करती है और छाँव सी प्रतीत होती है तो ... लिखने का उद्देश्य अपनी सफलता को प्राप्त होता है .

गीत पर आपकी आश्वस्तिकारी प्रतिक्रया के लिए बहुत बहुत आभार 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on May 14, 2015 at 6:56pm

आदरणीय गिरिराज भंडारी जी 

जिस गहनता से गीत को बांच कर आपने पंक्तियों को अनुमोदित किया है.... वह लेखन व सम्प्रेशणीयता के प्रति आश्वस्त करता है 

आपका हार्दिक आभार 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on May 14, 2015 at 6:46pm

आ० डॉ० गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी 

गीत के स्वरुप पर आपका अनुमोदन मिलना आश्वस्तिकारी है.. सही शब्द आकलन ही है.

धन्यवाद 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on May 14, 2015 at 6:39pm

आ० डॉ० आशुतोष जी 

गीत की चिंतनपरक  अंतर्धारा और आतंरिक गेयता संयोजन पर आपकी उत्साहवर्धन करती सराहना के लिए धन्यवाद 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on May 14, 2015 at 6:31pm

आ० मोहन सेठी जी , आ० समर कबीर जी, आ० श्याम नारायण वर्मा जी, आ० उमेश कटारा जी, आ० राज कुमार आहूजा जी, आ० विजय निकोर जी ,आ० सुनील जी,  गीत के अन्तर्निहित भावों पर आप सबकी सराहना और अनुमोदन बहुत प्रोत्साहित करने वाला है... सम्प्रेषण सहज हो सका है यह जानना संतोषकारी है 

आप सबका हृदय से धन्यवाद 

Comment by Dr. Vijai Shanker on May 2, 2015 at 6:05am
आदरणीय डॉo सुश्री प्राची सिंह जी ,
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति। " आज कर कुछ आकलन बाँच गठरी कर्म की औ’ झाँक अपना संचयन " , यह तो संभवतः प्रतिदिन क्या प्रतिपल करना चाहिए क्योंकि जीवन गल्तियों को सुधारने का अवसर तो देता ही नहीं , क्षतिपूर्ति के अवसर देता है, वह भी सबको नहीं , और सदैव नहीं.
संतुलन का खेल केवल यह जगत व्यवहार है,
साध लें तो नव-सृजन वरना कुटिल संहार है,
आपकी यह पंक्तियाँ तो गज़ब की नवचेतना का आदर्श सन्देश दे रहीं हैं, सम्यक जीवन का सन्देश , आदर्श जीवन का संदेश. सम्पूर्ण जीवन के लिए संदेश. क्या व्यक्ति, क्या समष्टि, क्या देश , क्या विश्व , सबके लिए। इतिहास साक्षी है , जब जब संतुलन बिगड़ा है , कुटिलता हावी हुयी है , बहुत संहार हुआ है। क्या कल, क्या सुदूर अतीत। सच में स्वयं यह जगत ही संतुलन की अवस्था है , ज़रा सा डगमगाया और प्रकृति की लीला। नेपाल का भूकम्प , एक छोटा उदाहरण.
सम्पूर्ण कविता पर आपको बहुत बहुत बधाई, ढेरों ढेरों शुभकामनायें ,
सादर।

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on May 2, 2015 at 2:07am

ध्यानस्थ अवस्था में अनहद की आवृति के संग झंकृत होते सजग संकेत जब शाब्दिक होते हैं तो प्रतिफल अनहद की आवृति के अनुरूप सरस-सलय तो होता ही है, प्रतिफल के प्रखर इंगित आनन्द का शुभ्र मण्डल भी आच्छादित कर देते हैं, जिसमें आत्मपरीक्षण के पश्चात आत्मशोधन की दशा व्यवहृत कर्म के सम्यक संज्ञान हेतु तत्पर होने को उत्प्रेरित करती है.

प्रसाद की कामायनी का जो इंगित ’कर्म का भोग, भोग का कर्म’ कहता हुआ कर्म और कर्मफल के सूत्र को साधता दिखता है, या श्रीमद्भग्वद्गीता ’त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं..’ कहती हुई जिस कर्म और कर्मफल से ’निराश्रित’ होने की बात करती है, आदरणीया प्राचीजी का प्रस्तुत गीत अपनी सरसता में उसी ’कर्मण्यभिप्रवृत्ति’ की चर्चा करता है. और, दो क्षण रुक कर संधान कर लेने को सुप्रेरित करता है.

साथ ही, प्रस्तुत गीत कर्ता, जिसे गीत में पथिक कहा गया है, के मन में सतत उठते ’किं कर्म, किं अकर्मेति’ के भ्रम को भी समक्ष प्रस्तुत करता है - वासना के जाल में आबद्ध हर इक श्वास से, बावरे लिख तो नहीं डाला कहीं अपना पतन ?

क्योंकि सर्वमान्य है, ऐसे भ्रम या मोह की स्थिति कर्ता (पथिक) के वैचारिक असंतुलन का कारण हुआ करती है जिसके प्रति श्रीमद्भग्वद्गीता ’द्वन्द्वातीत’ होने या ’सिद्धसिध्यो समो भूत्वा’ की बात करती है. अन्यथा कर्ता का पतन अवश्यंभावी है. इस पतन से दुष्प्रभावित मात्र कर्ता (पथिक) ही नहीं सारा समाज होता है. यदि कर्ता की भौतिक सामाजिक और मानसिक दशा व्यापक है तो दुष्प्रभाव का परिणाम उसी अनुपात में क्लिष्ट और विशद होगा.  आदरणीया प्राचीजी का यह इंगित गीत को प्रभावी तो बनाता ही है, सम्यक स्थायित्व भी देता है.

गीतके शब्द सहज हैं, तत्सम शब्दों के बीच विदेसज शब्दों का सुरुचिपूर्ण चयन आश्वस्त करता है कि गीत का हेतु शुद्धरूपेण संप्रेषण है, लक्ष्य मानव है, न कि आत्ममुग्धता के वाग्जाल का अन्यथा विस्तार. 

गीत का शिल्प गीतिका छन्द पर आधारित होने से इसकी गेयता असंदिग्ध है. शब्दकलों का अत्यंत सुन्दर निर्वहन वाचन को सुखद बनाता है. यह अवश्य है कि  हैं यहाँ साथी बहुत जो संग में तेरे चले  में  ’संग में’ का प्रयोग ’हलवे के निवाले में मिल गयी कंकड़ी’ की तरह प्रतीत होता है. यहाँ संग  के साथ ’में’ जबरी घुसा बैठा है.

इस सुन्दर गीत के लिए आदरणीया प्राचीजी को हार्दिक बधाइयाँ देता हूँ. ऐसी प्रस्तुतियाँ पाठकों के लिए ही नहीं, अपितु, वैयक्तिक साहित्यकर्म में अपेक्षित उन्नयन के लिए भी आवश्यक हैं.
शुभ-शुभ

Comment by shree suneel on May 1, 2015 at 11:52pm
बहुत सुंदर, सार्थक और संग्रहणीय रचना आदरणीया प्राची सिंह जी. हार्दिक बधाईयां आपको.

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

Mahendra Kumar replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-165
"इस प्रयास की सराहना हेतु दिल से आभारी हूँ आदरणीय लक्ष्मण जी। बहुत शुक्रिया।"
6 hours ago
Mahendra Kumar replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-165
"बहुत-बहुत शुक्रिया आदरणीय दिनेश जी। आभारी हूँ।"
6 hours ago
Zaif replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-165
"212 1222 212 1222 रूह को मचलने में देर कितनी लगती है जिस्म से निकलने में देर कितनी लगती है पल में…"
6 hours ago
Mahendra Kumar replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-165
"सादर नमस्कार आ. ऋचा जी। उत्साहवर्धन हेतु दिल से आभारी हूँ। बहुत-बहुत शुक्रिया।"
6 hours ago
Mahendra Kumar replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-165
"आदरणीय अमीरुद्दीन जी, सादर अभिवादन। इस प्रयास की सराहना हेतु आपका हृदय से आभारी हूँ।  1.…"
6 hours ago
Mahendra Kumar replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-165
"आदरणीय अमित जी, सादर अभिवादन! आपकी विस्तृत टिप्पणी और सुझावों के लिए हृदय से आभारी हूँ। इस सन्दर्भ…"
6 hours ago
Richa Yadav replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-165
"आदरणीय लक्ष्मण जी नमस्कार ख़ूब ग़ज़ल कही आपने बधाई स्वीकार कीजिये गुणीजनों की इस्लाह क़ाबिले ग़ौर…"
7 hours ago
Richa Yadav replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-165
"आदरणीय अमीर जी बहुत शुक्रिया आपका संज्ञान हेतु और हौसला अफ़ज़ाई के लिए  सादर"
7 hours ago

सदस्य कार्यकारिणी
शिज्जु "शकूर" replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-165
"मोहतरम बागपतवी साहिब, गौर फरमाएँ ले के घर से जो निकलते थे जुनूँ की मशअल इस ज़माने में वो…"
8 hours ago
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-165
"आदरणीय दिनेश कुमार विश्वकर्मा जी आदाब, तरही मिसरे पर अच्छी ग़ज़ल कही है आपने मुबारकबाद पेश करता…"
8 hours ago
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-165
"मुहतरमा ऋचा यादव जी आदाब, तरही मिसरे पर ग़ज़ल का अच्छा प्रयास हुआ है बधाई स्वीकार करें, आ० अमित जी…"
9 hours ago
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-165
"आदरणीय लक्ष्मण धामी भाई मुसाफ़िर जी आदाब ग़ज़ल का अच्छा प्रयास हुआ है बधाई स्वीकार करें, आदरणीय…"
10 hours ago

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service