1212 1122 1212 112/22
गई तो रंग बदलता ये शह्र छोड़ गई
घटा बहारों में ढलता ये शह्र छोड़ गई
सबा चमन से गुज़रते हुये महक लेकर
रविश-रविश* यूँ टहलता ये शह्र छोड़ गई *बाग़ के बीच की पगडण्डी
फ़िज़ा ए शह्र तलक आके यक-ब-यक आँधी
यूँ मस्तियों में उछलता ये शह्र छोड़ गई
तमाम रात भटकती वो तीरगी* आखिर *अँधेरा
पिघलती शम्अ पिघलता ये शह्र छोड़ गई
रहे हयात में तर्जे हयात* देख बदी *जीने का ढंग
हुदूदे डर से* निकलता ये शह्र छोड़ गई *डर की सीमाओं से
-मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय शिज्जु भाई जी बेहतरीन और उम्दा ग़ज़ल हुई है शेर दर शेर दाद कुबूल फरमाए.
वाह वाह वाह
आदरणीय जान गोरखपुरी जी आपका आभार
आदरणीय सौरभ सर आपका बहुत बहुत शुक्रिया एक दो बार मुझे खटका हुआ था पर लापरवाही से छोड़ कर आगे बढ़ गया था एक बार फिर बहुत बहुत शुक्रिया आपका। जल्दी सुधार करके पोस्ट करता हूँ
भाई शिज्जूजी, क्या कमाल की ग़ज़ल हुई है !
सबा चमन से गुजरते हुएमहक लेकर
रविश-रविश यूँ टहलता ये शह्र छोड़ गई.. . इस मुलायम कहन पर ढेरों दाद लीजिये..
तमाम रात भटकती वो तीरग़ी आखिर
पिघलती शम्अ पिघलता ये शह्र छोड़गई... . आदाब साहब !
रहे हयात में तर्जेहयात देख बदी
हुदूदे डर से निकलता ये शह्र छोड़ गई.. वल्लाह ! (जब मानी मिल गये तो शेर का मेयार समझ में आ रहा है)
इस उम्दा कहन को शेरों में ढालने के लिए बार-बार बधाई..
लेकिन साहब आपने मतले को यों बेपरवाह हुआ क्यों छोड़ दिया ? अब इतने सुधीजनों में से किसी ने इस ओर अगाह नहीं किया है, सो मैं भी भ्रम में आ गया हूँ, कि क्या मैं ही गलत तो नहीं हूँ !
भाई मेरे यहाँ तो काफ़िया का दोष हो गया है न ! सिनाद दोष इसे नहीं कहते ?
’लता’ के पहले ’बद’ का ’द’ यानी अकारान्त और सानी में ’लता’ के पहले ’खि’ यानी इकारान्त.
भाई, देख लीजियेगा.
आदरणीया महिमाजी नवाज़िशों के लिये आपका बहुत बहुत शुक्रिया
आदरणीय निलेश भैया आपका बहुत बहुत शुक्रिया आप स्वयं एक बहुत अच्छे ग़ज़लकार हैं इसलिये आपकी टिप्पणी मेरे लिये बहुत मायने रखती है
आदरणीय गिरिराज सर आपका बहुत बहुत शुक्रिया
आदरणीय डॉ गोपाल नारायण सर आप जैसे वरिष्ठ रचनाकार से रचना की सराहना सदैव हर्ष का कारण होता है आपका तहे दिल से शुक्रिया
आदरणीय लक्ष्मण धामी जी आपका बहुत बहुत शुक्रिया
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