For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

ग़ज़ल - पाँव में जंजीर है.... (मिथिलेश वामनकर)

2212 / 2212 / 2212 / 2212----- (इस्लाही ग़ज़ल)

 

दिल खोल के हँस ले कभी,  ऐसी कहाँ तस्वीर है

यारो चमन की आजकल इतनी कहाँ तकदीर है

 

झूठे निवालों में यहाँ,  कटती सभी की जिंदगी

इस मुल्क के हालात की बोलो अगर तद्बीर है

 

अक्सर सियासत में यही जुमले चले है आजकल

"ये तो मसाइल है मगर,  फिर भी कहाँ गंभीर है"

 

भाटा हुआ जो रात को, फिर ज्वार कब सुबहा हुआ

सीने में अब अपने समंदर सी कहाँ तासीर है

 

वैसे पलट के बोल दे, हर बात जो दिल को लगे   

चुपचाप सुनते है फ़क़त, ये आपकी तौकीर है

 

हमसे कहा था आपने, ये आपकी सरकार है

ये है हकीक़त या किसी के ख्वाब की ताबीर है

 

बारूद है बन्दूक है या  मजहबी फरमान है

ये मौत का सामान भी तो दमबदम तामीर है

 

अब तो मुकम्मल ज़िन्दगी, हर एक को मिलती नहीं

जिस हाथ में है रोटियाँ, उस पाँव में जंजीर है

 

लो, क़त्ल भी मेरा हुआ, कातिल मुझे माना गया

तफ्तीश भी मेरी हुई, मुझको मिली ताज़ीर है

 

कैसे ग़ज़ल अपनी कहूँ, इसमें कई परछाइयाँ

है दाग़ भी, ग़ालिब कहीं या तो कहीं पे मीर है

 

ये है यकीं ‘मिथिलेश’ वो, अब क़त्ल करके जाएंगे

ये दोसती की आड़ है, वो हाथ में शमशीर है

 

-------------------------------------------------------
(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
-------------------------------------------------------

 

बह्र-ए-रजज़ मुसम्मन सालिम

अर्कान –मुस्त्फ्यलुन / मुस्त्फ्यलुन / मुस्त्फ्यलुन / मुस्त्फ्यलुन

वज़्न –   2212 / 2212 / 2212 / 2212

Views: 1197

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on March 8, 2015 at 12:00pm

प्रिय अनुज मिथिलेश , गुरु संबोधन के योग्य मुझमें कुछ नहीं है , और ये मंच तो वो मंच है जहाँ योग्यता रखने वाले , आ. वीनस भाई , आ. राणा भाई , आ. सौरभ भाई , आ. तिलक राज भाई , आ. योगराज भाई किसी ने भी अपने को गुरू नही स्वीकारा है , बस एक छोटे या बड़े भाई की तरह सीखते सिखाते रहे हैं । मै किस मुँह से गुरु संबोधन को स्वीकारूँ , जब कि अभी मेरी भी सीखने की शुरुवात हुई है । मै तुम्हें अनुज स्वीकार करता हूँ , अतः अब से मै अग्रज संबोधन स्वीकार करता हूँ । ' सर ' को भी त्याग दो भाई । साँस रुकने लगती है ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on March 8, 2015 at 11:33am

अब बह्र सी बाक़ी भला सब में कहाँ तासीर है ---  समस्या मुक्ति का उपाय ! वैसे मेरी समझ में सभी बह्र में शिकश्ते नारवाँ न्हीं देखते हैं , फिर भी ।

Comment by Nirmal Nadeem on March 8, 2015 at 11:17am
बहुत उम्दा ग़ज़ल हुई है जनाब। ज़िंदाबाद
Comment by Hari Prakash Dubey on March 8, 2015 at 11:10am

आदरणीय मिथिलेश भाई ,कुछ परिवर्तन के साथ ग़ज़ल और भी निखर गयी है , बधाई आपको ! सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on March 8, 2015 at 10:43am

गुरुवर आपकी इस इस्लाह के चक्कर में मार्च के महीने में ओबीओ पर डटा हुआ हूँ . आदरणीय गिरिराज सर, इस ग़ज़ल पर आपकी इस्लाह का बेसब्री से इंतज़ार कर रहा था. कुछ अशआरों में सुधार नहीं कर पा रहा था. आपने जो सलाहें दी है उसमे ये दो तो शब्दशः स्वीकारते हुए संशोधित करता हूँ -

भाटा हुआ तो रात को , पर ज्वार होने से रहा 

जब हाथ आईं रोटियाँ तो पाँव में जंज़ीर है 

बाकी दो -----

अब मौत के सामान का तो दम ब दम तामीर है 

है दाग ग़ालिब की कहीं पर, तो कहीं पर मीर है 

पर विचार कर रहा हूँ . 

यहाँ शिकस्ते नारवा की समस्या आन खड़ी हुई है 

सीने में अब / अपने समन् / दर सी कहाँ / तासीर है

2212    /        2212 /         2212 /      2212

आपका आशीर्वाद मिल गया तो थोड़ा संतोष हुआ. सादर नमन 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on March 8, 2015 at 10:26am

बहुत बढिया गज़ल हुई है , आदरणीय मिथिलेश भाई , दिली बधाइयाँ ॥ 

भाटा हुआ जो रात को, फिर ज्वार कब सुबहा हुआ

सीने में अब अपने समंदर सी कहाँ तासीर है  

बारूद है बन्दूक है या  मजहबी फरमान है

ये मौत का सामान भी तो दमबदम तामीर है  

अब तो मुकम्मल ज़िन्दगी, हर एक को मिलती नहीं

जिस हाथ में है रोटियाँ, उस पाँव में जंजीर है  

कैसे ग़ज़ल अपनी कहूँ, इसमें कई परछाइयाँ

है दाग़ भी, ग़ालिब कहीं या तो कहीं पे मीर है  

बहुत सुंदर , बहुत बधाइयाँ  --  इन्ही अश आर के लिये कुछ नाहक़ की सलाहें , अगर अच्छी लगे तो स्वीकार कीजियेगा ,नहीं तो छोड़ दीजियेगा ---  

भाटा हुआ तो रात को , पर ज्वार होने से रहा 

अब मौत के सामान का तो दम ब दम तामीर है 

जब हाथ आईं रोटियाँ तो पाँव में जंज़ीर है 

है दाग ग़ालिब की कहीं पर, तो कहीं पर मीर है 

                        पहले भी गज़ल अच्छी है , परिवर्तन ज़रूरी नहीं है , फिर भी एक बार सोच लेना ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on March 8, 2015 at 10:02am

गुनीजनों की इस्लाह हेतु रचना प्रस्तुत 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on March 8, 2015 at 10:01am

आदरणीय Nazeel जी रचना पर  स्नेह और सराहना के लिए हार्दिक आभार, बहुत बहुत धन्यवाद 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on March 8, 2015 at 10:00am

आदरणीय गुमनाम सर , रचना पर  स्नेह और सराहना के लिए हार्दिक आभार, बहुत बहुत धन्यवाद 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on March 8, 2015 at 10:00am

आदरणीय डॉ विजय प्रकाश शर्मा  सर , रचना पर  स्नेह और सराहना के लिए हार्दिक आभार, नमन

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

Shyam Narain Verma commented on Sushil Sarna's blog post शर्मिन्दगी - लघु कथा
"नमस्ते जी, बहुत ही सुन्दर और ज्ञान वर्धक लघुकथा, हार्दिक बधाई l सादर"
6 hours ago
सुरेश कुमार 'कल्याण' posted blog posts
16 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' posted blog posts
16 hours ago
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-118
"हार्दिक धन्यवाद आदरणीय मनन कुमार सिंह जी। बोलचाल में दोनों चलते हैं: खिलवाना, खिलाना/खेलाना।…"
yesterday
Manan Kumar singh replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-118
"आपका आभार उस्मानी जी। तू सब  के बदले  तुम सब  होना चाहिए।शेष ठीक है। पंच की उक्ति…"
yesterday
Manan Kumar singh replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-118
"रचना भावपूर्ण है,पर पात्राधिक्य से कथ्य बोझिल हुआ लगता है।कसावट और बारीक बनावट वांछित है। भाषा…"
yesterday
Sushil Sarna replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-118
"आदरणीय शेख उस्मानी साहिब जी प्रयास पर  आपकी  अमूल्य प्रतिक्रिया ने उसे समृद्ध किया ।…"
yesterday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-118
"आदाब। इस बहुत ही दिलचस्प और गंभीर भी रचना पर हार्दिक बधाई आदरणीय मनन कुमार सिंह साहिब।  ऐसे…"
yesterday
Manan Kumar singh replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-118
"जेठांश "क्या?" "नहीं समझा?" "नहीं तो।" "तो सुन।तू छोटा है,मैं…"
yesterday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-118
"हार्दिक स्वागत आदरणीय सुशील सरना साहिब। बढ़िया विषय और कथानक बढ़िया कथ्य लिए। हार्दिक बधाई। अंतिम…"
yesterday
Sushil Sarna replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-118
"माँ ...... "पापा"। "हाँ बेटे, राहुल "। "पापा, कोर्ट का टाईम हो रहा है ।…"
yesterday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-118
"वादी और वादियॉं (लघुकथा) : आज फ़िर देशवासी अपने बापू जी को भिन्न-भिन्न आयोजनों में याद कर रहे थे।…"
Thursday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service