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आखिर मैं आज कहाँ हूँ ? (मिथिलेश वामनकर)

वो अलसाया-सा इक दिन

बस अलसाया होता तो कितना अच्छा

 

जिसकी

थकी-थकी सी संध्या

जो गिरती औंधी-औंधी सी

रक्ताभ हुआ सारा मौसम

ऐसा क्यों है.....

बोलो पंछी?

 

ऐसा मौसम,

ऐसा आलम  

लाल रोष से बादल जिसके

और

पिघलता ह्रदय रात का

अपना भोंडा सिर फैलाकर अन्धकार पागल-सा फिरता

हर एक पहर के

कान खड़े है

सन्नाटे का शोर सुन रहे

ख़ामोशी के होंठ कांपते

कुछ कहने को फूटे कैसे ?

किसी पेड़ की टहनी-सा

मैं साथ हवा के हिलडुल लूं

पर

भय से थर-थर काँप रहा हूँ

बाहर-भीतर

एक सरीका

 

वो वीभत्स,

भयंकर दृश्य रचेंगे.... और भी जाने कितना कुछ 

कहाँ किसी का कौन हुआ है?

मेरे भीतर बहने वाला राग

अचानक मौन हुआ है

जलती आँखों को पोछ रहा हूँ

बोलो पंछी......

कुछ तो बोलो

आखिर मैं कहाँ हूँ ?

 

-------------------------------------------------

संशोधित कविता  - तुकांत

----------------------------------------------------

वो अलसाया-सा इक दिन,

बस अलसाया होता तो कितना अच्छा

पर अवसाद मिले अनगिन.

 

संध्या जिसकी थकी-थकी सी, जो गिरती औंधी-औंधी सी

रंगत नभ की रक्ताभ हुई, ऐसा क्यों है.... बोलो पंछी?

 

लाल रोष से बादल कितना, और पिघलता ह्रदय रात का

सिर फैलाकर अपना भोंडा, अन्धकार पागल-सा फिरता

 

कान खड़े हर एक पहर के, सन्नाटे का शोर सुन रहे,

ख़ामोशी के होंठ कांपते, कुछ कहने को फूटे कैसे ?

 

किसी पेड़ की टहनी-सा झर, साथ हवा के हिलडुल लूं पर

काँप रहा हूँ भय से थर-थर, एक सरीका बाहर-भीतर

 

वीभत्स, भयंकर दृश्य रचा है, कहाँ किसी का कौन हुआ है?

भीतर था जो, कहाँ छुपा है, राग अचानक मौन हुआ है

 

जलती आँखे पोछ रहा हूँ

पूछ रहा हूँ, बोलो पंछी...कुछ तो बोलो

आखिर मैं आज कहाँ हूँ ?

 

-------------------------------------------------------------

(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर  

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Comment

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Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on January 24, 2015 at 1:27pm

 आदरनी वामनकर जी

भाव धनी तो आप है ही i थोडा सा र्य्दम और तुकांतता पर भी ध्यान अपेक्षित है  i जैसे - 

वो रचेंगे

वीभत्स,भयंकर दृश्य

और भी जाने कितना कुछ अदृश्य

यहाँ किसका हुआ है कौन

मेरे भीतर बहने वाला राग

अचानक हो गया  है मौन

जलती आँखों को पोछ रहा हूँ मै

बोलो पंछी !.

कुछ तो बोलो

आखिर मैं कहाँ हूँ ?

Comment by kanta roy on January 24, 2015 at 12:25pm
अलसाये से दिन में भी उसे अलसाने की इजाज़त नही ।थकी मांदी सी बादल का रोष , अंधकार का पागलपन सब सहती हुई खामोशी को अपने दामन में समेटे हुए आखिर वह "वही"तो हो सकती है ।बस "वही " तो वो हो सकती है । मर्म को समेटे हुए इस खूबसूरत रचना के लिए बहुत बहुत बधाई आपको आ.मिथिलेश वामनकर जी ।आभार

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