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" मिल गया चैन तुमको , हो गयी तसल्ली " , उसके पिता खुद को संभाल नहीं पा रहे थे | " कितनी बार मना किया था कि उसे वहां मत भेजो , अब खो दिया न उसको "| बेटी की असमय मौत ने उनको तोड़ दिया था |
टूट तो मैं भी गयी थी लेकिन मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि बेटी को उसकी मर्ज़ी की जगह नौकरी करने की वकालत करके मैंने कौन सा गुनाह कर दिया था | उसकी कही बात जेहन में घूम रही थी " जाना तो एक दिन सब को है माँ , तो क्यों न निडर होके अपने तरीके से जिया जाए | अपना आसमाँ खुद ढूंढा जाए "| बेहद मुश्किल था अब लेकिन मुझे सम्भालना था , खुद को भी और परिवार को भी | शायद बेटी की आत्मा के आसमाँ के लिए |

मौलिक एवम अप्रकाशित

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Comment by मिथिलेश वामनकर on January 16, 2015 at 9:03pm

अपने पीछे कई प्रश्न छोड़ जाती लघुकथा 

आदरणीय विनय जी बधाई एक और सफल लघुकथा के लिए 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on January 16, 2015 at 3:54pm

विनय जी

बड़ा ही सांकेतिक है i कई प्रश्न भी उठते है  i क्या अपना  आसमाँ  खुद तलाशने के लिए  अनुभव पर जवानी को तरजीह देना उचित है i पर सांकेतिक होने के कारण कथा अपना प्रभाव छोडती है i  सादर i

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