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ग़ज़ल------जुबाँ ग़र जह्र जो उगले जुबाँ को काट डालेंगे

कोई भी लफ्ज आगे से नहीं सच का निकालेंगे
जुबाँ गर जह्र जो उगले जुबाँ को काट डालेंगे

चलो तनहाई को लेकर यहाँ से दूर चलते हैं
ग़मे दिल के सहारे से नयी दुनिया बसालेंगे

मग़र तरक़ीब तो कोई बतादे बेव़फा हमको
तेरी हो याद ज़ोरों पर भला कैसे सँभालेंगे

कभी भी जुर्म के आगे मेरा सर झुक नहीं सकता
अना के वास्ते अपनी उसी दिन सर कटालेंगे

लगा है देश अब घुटने सियासत कायदे भूली
कभी आवाम के आँसू सियासत को डुबालेंगे

मौलिक व अप्रकाशित
उमेश कटारा

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Comment

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मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on November 5, 2014 at 12:03pm

//कभी भी जुर्म के आगे मेरा सर झुक नहीं सकता
अना के वास्ते अपनी उसी दिन सर कटालेंगे//

वाह वाह आदरणीय काटरा साहब, क्या बात कही है, बढ़िया शेर।

एक अच्छी ग़ज़ल की प्रस्तुति हुई है, बधाई स्वीकार करें।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on November 5, 2014 at 11:39am

आदरणीय उमेश भाई , बहुत सुन्दर ग़ज़ल कहे है आपने , दिली बधाइयाँ स्वीकार करें ।
लगा है देश अब घुटने सियासत कायदे भूली
कभी आवाम के आँसू सियासत को डुबालेंगे - लाजवाब शेअर , बधाई ।

Comment by Alok Mittal on November 5, 2014 at 11:33am

कभी भी जुर्म के आगे मेरा सर झुक नहीं सकता
अना के वास्ते अपनी उसी दिन सर कटालेंगे,,,,,,,,,,,शानदार शेर आपका

बहुत बढ़िया ग़ज़ल आपकी

कृपया ध्यान दे...

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