दर्द पत्थर को जब सुनाता था
मुझको पत्थर और आजमाता था।
बोलना,उसके सामने जाकर,
मैं तो अन्दर से काँप जाता था
वो समझता न था,मेरे अहसास,
मैं तो मिट्टी पे लेट जाता था
इतनी पूजा की विधि थी उसके पास,
हर किसी को वो लूट जाता था
आज मालूम हो गया मुझको,
एक पुतला मुझे डराता था।
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
बहुत सुन्दर आदरणीय..
दर्द पत्थर को जब सुनाता था
मुझको पत्थर और आजमाता था।..अच्छी ग़ज़ल बधाई.
जी आपका हृादिक स्वागत है। बहुत बहुत धन्यवाद
आज मालूम हो गया मुझको,
एक पुतला मुझे डराता था.......बहुत सुंदर. बधाई आपको आदरणीय सूबे सिंह जी
Sulabh Agnihotri..............जी आपका बहुत बहुत धन्यवाद।
आज मालूम हो गया मुझको,
एक पुतला मुझे डराता था।
वाह ! बहुत सुन्दर गजल हुई है भाई सूबे सुजान सिंह जी !
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