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पंख परेवों ने खोले नव भोर हुई

रास (चौपाई +अलिपद )8-8\6=22

 

पंख परेवों ने खोले नव भोर हुई

भजनों सा चहका फिर खगरव भोर हुई

 

शबनम झाड़ी ली अँगड़ाई किसलय ने

बाग बगीचों में है उत्सव भोर हुई

 

मंदिर की घंटी से और अजानों से

सुप्त धरा का टूटा नीरव भोर हुई

 

धूप गुलाबी उबटन सी कण कण पर है

निखरा फिर धरती का वैभव भोर हुई

 

अखबारों के पन्नों में जागी दुनिया

गर्म चाय का पीकर आसव भोर हुई

 

दिन भी गुजरेगा ही रात कटी जैसे

नाम तुम्हारा लेकर राघव भोर हुई

 

जब ‘खुरशीद’ जिगर तुमने अपना फूंका

रात ढली तब जाकर संभव भोर हुई

मौलिक व अप्रकाशित 

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Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on September 20, 2014 at 1:28pm

आदरणीय खुरशीदजी

आदरणीय सौरभ जी ने कहने के लिए कुछ छोड़ा  ही नहीं i फिर भी अति सुन्दर i

Comment by Sulabh Agnihotri on September 18, 2014 at 12:03pm

हाय ! खुर्शीद जी ! मन मोह लिया।
रही बात तारीफ करने की तो सौरभ जी ने कुछ कहने को छोड़ा ही नहीं -
बस इतना ही कह सकता हूँ कि भाई जो मैं कहना चाहता रहा हूँ उसे आपने कह दिया, जिस सलीके से कहना चाहता रहा हूँ, उसे आपने उससे भी ज्यादा सलीके से कह दिया
बधाई हो ! कोई जुगत ऐसी भिड़े कि आपकी कलम मैं हथिया सकूँ।

Comment by khursheed khairadi on September 18, 2014 at 9:49am

आदरणीय सौरभ सा. आपके स्नेह की बौछार से अंतर्मन सराबोर हो गया है |आदरणीय गिरिराज सा. और आप का आशीर्वाद रचना को मिला ,रचना धन्य हो गई |आप विद्जनों का मैं ह्रदय से आभारी हूं |रचना को ग्यारह ग़ाफ़ या फेलुन *5+फा पर भी बांधा हुआ माना जा सकता है ,किंतु दो अष्टक +दो त्रिकल रखकर समप्रवाहिता सहज हो जाने के कारण मुझे 'रास' की शरण में जाना अधिक उपयुक्त लगा |ऐसा करने से ग़ज़ल हिंदी गीतिका के अधिक समीप हो गई |मंच का आशीर्वाद रूपी अनुमोदन मिल जाने से मेरा प्रयास और पुष्ट हो गया है |सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 18, 2014 at 7:29am

आदरणीय खुर्शीद भाई , मैं  तो इस रचना की सराहना के योग्य भी अपने को नहीं समझ पा रहा हूँ , अच्छा हुआ जो आदरणीय सौरभ भाई जी ने विस्तार से सराहना की , मैं  उतनी गहराई तक न पहुँच पाता , और ऊपरी तारीफ़ कर के गुजर गया होता | अत: सराहना के लिए आप आदरणीय सौरभ भाई की प्रतिक्रिया मेरी तरफ से  भी एक बार और पढ़ लें , तहे दिल से मैं उन्ही शब्दों को आपकी ग़ज़ल के लिए दुहरा रहा हूँ | दिल से मुबारकबाद देता हूँ |  मैं  भी आदरणीय सौरभ भाई की खुशी में शामिल हूँ  , ऐसी रचना पढवाने  के लिए आपका आभार |


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 18, 2014 at 12:34am

भाई जी.. भाईजी.. भाईजी.. !!..
कमाल कर दित्ता भाईजी.. कमाल कर दित्ता !..
जिसने भी कहा है, कितना सही कहा है - लीक छोड़ तीनों चलें.. शायर सिंह सपूत !
सही शायर लीक से लकीर खेंचता है और फिर निभाता हुआ मिसाल रखता है !
खुर्शीद भाई, आपने बह्रेमीर का क्या ही खूबसूरत, क्या ही खूबसूरत .. क्या ही ज़मीनी प्रयोग किया है ! क्या प्रस्तुति दी है आपने !
इस भाव-मोहिनी की हम जीतनी तारीफ़ करें, कम होगा !

अरसे बाद, इस मंच पर ऐसे देसी, पारम्परिक और आत्मीय बिम्बों का इतना आत्मविश्वासी प्रयोग हुआ है !
शुभ-शुभ !!
 
पंख परेवों ने खोले नव भोर हुई
भजनों सा चहका फिर खगरव भोर हुई.............. ... .... . ...... ’परेवों’ का प्रयोग कर आपने तो बस मोह लिया भइया. जुग-जुग जीयो भाई ! दूसरे, ’खगरव में भजन’ की अनुगूँज ! क्या कहूँ, ऐसी खालिस भारतीय सोच के लिए अब मन तरसता है. क्या ’बेतुका संकर समाज’ झोंकते जा रहे हैं हम अब ! न भाई-लोग खुल के देसी बिम्ब ले पा रहे हैं, न खुल के प्रतीकों से अपनत्व गाँठ पा रहे हैं.
दिल से दुआ कुबूल करें, खुर्शीद भाई.  

शबनम झाड़ी ली अँगड़ाई किसलय ने
बाग बगीचों में है उत्सव भोर हुई............................................ उत्स्वधर्मिता इस भूमि का ’प्राण-तत्व’ है, जिसपर आज कैसे-कैसे कुठाराघात हुए हैं, इस शेर को सुन-देख कर बड़ी शिद्दत से महसूस हो रहा है ! शबनम को एकबारगी झटक कर किसलय का चैतन्य हो, आगे तन्मय हो जाना.. आह, मुग्ध कर गयी यह सोच ही !

वाह-वाह !

मंदिर की घंटी से और अजानों से
सुप्त धरा का टूटा नीरव भोर हुई........................ . ................. सुप्त धरा के ’नीरव’ का टूटना ! इस ’टूटने’ का भी कितना निर्मल कारण पटल पर उद्धृत हुआ है, मिसरा-ए-उला से ! सुबहानअल्लाह ! ..

धूप गुलाबी उबटन सी कण कण पर है
निखरा फिर धरती का वैभव भोर हुई......................................   एक-एक बिम्ब मंज़रनिग़ारी का खूबसूरत कारण बना है. ’गुलाबी उबटन’ की कल्पना ही गुदगुदा गयी हमें ! गर्वीली वैभवशालिनी धरा के अलमस्त नाज़ से कौन न अश-अश कर भर जाये ! बहुत ही खूबसूरत शेर हुआ है, भाई.

दाद-दाद-दाद !

अखबारों के पन्नों में जागी दुनिया
गर्म चाय का पीकर आसव भोर हुई...........................................  एक-एक शेर मानों सीधा आँगन-ओसारे के सुखवास से गंधियाया निखरा-निखरा पुलक आया है. गरम-गरम चाय के पेय को इस निहायत अपनत्व से ’आसव’ की संज्ञा अब देता कौन है, साहेब !

दिन भी गुजरेगा ही रात कटी जैसे
नाम तुम्हारा लेकर राघव भोर हुई.........................................   जीयो भइया, जीयो ! ’राघव-राघव’ उच्चारते उनियाये मन के एकबारगी चैतन्य हो जाने की अनुभूति ! नीलाम्बुज श्यामल कोमलांगम्... नमामि रामं रघुवंश नाथं !

जब ‘खुरशीद’ जिगर तुमने अपना फूंका
रात ढली तब जाकर संभव भोर हुई........................................ इस मक्ते की आग की झौंक ! सोना भी कुन्दन हो चले ! इसी कुन्दन होने के फेर में तो जिगर फुँकता है. छाती में धौंकनी चलती है.  इस भावसिक्त ’दोहथी’ को दिल से लगाये हम उन्मन हुए जारहे हैं. और साहब, इस ’संभव’ शब्द के तो क्या कहने ! अभी-अभी मेरी एक हालिया कविता पर इसे लेकर मेरे बड़े भइया ने चर्चा की है. अब उनके हम ’का’ कहें जे ’संभव’ को किन-किन ’सरूपों’ में हम पुरबिये बान्ह लेते हैं ! शुभ-शुभ भजो जी, शुभ-शुभ भजो !...

खुर्शीद भाईजी, ग्यारह ग़ाफ़ को जिस लिहाज़ से बाँध कर आपने कलमगोई की है, वह चकित करती है.

अलबत्ता आपने ’चौपाई को अलिपद’ से बाँधने का संकेत दे, काव्य-रंजकों को अवगुंठन से झलकी-झलकी निहारती बाँकी ग़ज़ल से परिचित कराया है. वाह ! ’चौपाई + अलिपद’, यानि, १६+६=२२ मात्राएँ, अर्थात, ११ ग़ाफ़ !).  बहुत खूब ! हम ग़लत नहीं हैं न ! क्यों कि ’रास’ की संज्ञा का यों प्रयोग हम पहली दफ़े सुन रहे हैं.
आपका हृदय से स्वागत है.

हम आज इतने खुश हैं कि, आऽऽह, हम ’शाहजहाँ’ न हुए !
(इस अतिरेक को अन्यथा न लीजियेगा)
शुभेच्छाएँ.. .

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