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बिच्छू के डंक-से ये दिन

बिच्छू के डंक-से दिन ये खलते रहे

सर्प के दंश-सी रातें खलती रहीं

बंद पलकों में ले दर्द सारा पड़े

नव सृजन-सर्ग की आस पलती रही  |

 

अहं से हृदय काँटा हुआ जा रहा

द्वेष-दावाग्नि घर-बार पकड़े हुए

भोग की यक्ष्मा भीतर घर कर गई

रात-दिन बुद्धि के ज्वर से हम तप रहे

जैसे बढ़ते ज़हरबाद का हो असर

क्रूरता-नीचता मन की बढ़ती रही |

 

आँख काढ़े-सा शैतान विज्ञान का

पीसकर दाँत आगे खड़ा हो रहा

महामारी-सा रुतबा है आतंक का

डंका छलबल का चारों तरफ बज रहा  

बाह्य विभुता का ऊपर से छाया नशा  

दर्प-कंदर्प की हाँक चलती रही |

 

धृष्टता-भ्रष्टता का मुकुट सिर धरे  

न्याय को पंख जैसे गरुण का लगा  

शान्ति-करुणा की अर्थी उठाते हुए

भीम का कंधा ज्यों हो दुराचार का

धर्म का दर्भ मरुभूमि में जल रहा

होलिका सत्य की नित्य जलती रही |

 

(मौलिक व अप्रकाशित)

--- संतलाल करुण      

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Comment

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Comment by Santlal Karun on August 15, 2014 at 3:45pm

आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी,

आप ने गीत-रचना पर गौर किया है, सहृदय आभार ! मात्राओं लेकर मैंने प्रयास किया था, पर शतप्रतिशत मात्रिकता के चक्कर में अपेक्षित भाव तथा उनकी संप्रेषणीयता प्रभावित हो रही थी ! अतएव हल्की छूटों के साथ उन्हें सँजोने का विकल्प अपनाना अधिक ठीक लगा |

Comment by Santlal Karun on August 15, 2014 at 3:29pm

आदरणीया सविता मिश्रा जी,

रचना की प्रशंसा के लिए आभार !


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 14, 2014 at 10:29pm

मन के ऊहापोह को अभिव्यक्त करती इस प्रस्तुति के कई बिम्ब कुढ़न को सार्थक ढंग से शब्दबद्ध कररहे हैं.

रचना के लिए हार्दिक बधाई, आदरणीय.

एक बात :

पंक्तियों की कुल मात्राओं में छूट ली गयी है. इससे रचनाकार अब बचते हैं.

Comment by savitamishra on August 11, 2014 at 3:39pm

बहुत खुबसुरत _/\_

कृपया ध्यान दे...

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