जब जब जागी उम्मीदें ,
अरमानों ने पसारे पंख.
देखा बहेलियों का झुंड,
आसपास ही मंडराते हुए,
समेट लिया खुद को
झुरमुटों के पीछे.
अँधेरा ही भाग्य बना रहा.
हमारे ही लोग,
हमारे जैसे शक्लों वाले,
हमारे ही जैसे विश्वास वाले,
करते रहे बहेलियों का गुण गान.
उन्हें बताते रहे हमारी कमजोरियों के बारे में
बहेलिये भी हराए जा सकते हैं.
कभी सोचा ही नहीं .
उनकी शक्ति प्रतीत होती थी अमोघ.
जंगल में लगी आग में देखा
बहेलिये को भयाक्रांत
जान बचाकर भागते हुए
बहेलिया भी डरता है,
वह हराया जा सकता है..
उठा लिया एक लुआठी.
सबने कहा यह गलत है..
बहेलिये को डराना है अनैतिक.
हम हैं इतने ज्यादा , बहेलिये इतने कम
पर धीरे धीरे जमा होने लगे सभी
बन गयी एक लम्बी श्रृंखला लुआठियों की
भयमुक्त जीना
अपनी संततियों के सुखद भविष्य देखना
अच्छा लगता है .
अच्छे दिन आ गए.
….
नीरज कुमार नीर
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय सौरभ जी आपकी इस विस्तार पूर्वक की गयी टिप्पणी एवं आपके अनुमोदन के लिए हार्दिक रूप से आभारी हूँ. आपकी टिपण्णी ने न केवल प्रोत्साहित किया है बल्कि मन प्रफुल्लित भी किया है .. कृपया स्नेह बनाये रखें एवं उचित मार्गदर्शन भी करते रहें .. सादर ..
भाई नीरज नीर जी,
हर सिक्के के दो पहलू होते हैं. अबतक जिस तरह से आदिमजनों की भावनाओं एवं आवश्यकताओं को किनारे कर उनके तथा उनके क्षेत्रों के विकास की अवधारणाओं और नियमावलिओं को लागू किया गया है, उसीकी परिणति है कि वन-प्रदेश धधक उठा है. उसकी तपन और अगन का कई समूहों-संगठनों ने अपने जुगुप्साकारी स्वार्थ के तहत उपयोग किया है, इन्हें भुनाया है. आज यह निर्विवाद है, कि वनवासियों की जलन पर मरहम न लगा कर मिर्ची-नमक रगड़ा गया है. इस कर्म में दोनों तरह के लोग लिप्त हैं. वे भी जो उनकी ओर खड़े दिख रहे हैं और वे भी जो उन समूहों-संगठनों के विरुद्ध खड़े हैं. लेकिन हर बार छला गया वनवासी ही है. इस ज़िद और स्वार्थ को नाम चाहे जो दिया जाय, वस्तुतः है यह शुद्ध समाजद्रोही कार्य, जहाँ समझ की नहीं, अनर्थकारी हठ के वशीभूत आगे बढ़्ते चले जाने का आग्रह होता है. इस बददिमाग सोच ने हिंसा का जो ताण्डव शुरु किया है उसका अंत आजके प्रयासों में कत्तई नहीं दिखता. लेकिन जिस मुलायम ढंग से कविता में आजकी अति प्रसिद्ध राजनैतिक पंच-लाइन का उपयोग किया गया है वह आपकी कविमन सोच के प्रखर रूप को सामने लाता है.
आपकी इस कविता के माध्यम से मैं आपको रचनाकर्म और संप्रेषण प्रक्रिया में एक सोपान और चढ़ा/ आगे बढ़ा देख रहा हूँ. इस कविता ने जहाँ आदिम जन की एक प्रासंगिक सोच को आम किया है, जैसा कि मैंने ऊपर कहा है, राजनैतिक पंच-लाइन को कुशलता से प्रयुक्त किया है जो कि वन-प्रदेश में तारी मनोदशा की अभी तक कत्तई अभिव्यक्ति नहीं मानी जाती थी.
आपकी इस सुन्दर अभिव्यक्ति को मैं हृदय से अनुमोदित कर रहा हूँ, भाईजी. इस कविता के होने पर हार्दिक शुभकामनाएँ और अतिशय बधाइयाँ.
आदरणीया विन्दु जी.. सादर धन्यवाद..
आदरणीया राजेश कुमारी जी इस प्रोत्साहन के लिए हार्दिक धन्यवाद.
आदरणीय गिरिराज भंडारी साहब हार्दिक धन्यवाद.
आदरणीय बृजेश नीरज जी आपको रचना अच्छी लगी आपका बहुत शुक्रिया ...
आदरणीया मीना पाठक जी आपका धन्यवाद..
आदरणीय जवाहर लाल सिंह जी आपका हार्दिक धयवाद..
डॉ. आशुतोष मिश्र जी आपका ह्रदय तल से आभार व्यक्त करता हूँ.. आपकी टिप्पणी प्रोत्साहित करने वाली है..
आदरणीय भ्रमर जी आपका आभार..
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