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रंग में भीगी हवा/नवगीत/कल्पना रामानी

रंग में भीगी हवा,

चंचल चतुर इक नार सी,

गाने लगी है लोरियाँ।

 

ऋतु बसंती, पाश फैला कर खड़ी

फागुन प्रिया।

सकल जल-थल, नभचरों को खूब

सम्मोहित किया।

भंग में डूबी फिजा ने, खोल दीं मनुहार की,

भावों भरी बहु बोरियाँ।

 

मद भरे सागर में सारा जग,

लगा है डूबने।

भू पे उतरा गगन, हर ज़र्रा

लगा है झूमने।

बाँचने बैठे छबीले, गीत छंदों की चुटीली,

प्रेम रस की पोथियाँ।

 

दिख रहे कोयल, पपीहे, मोर सब

इक झुंड में।

फूल, भँवरे, तितलियाँ, लहरा रहे

रस कुंड में।

मादलों पर थाप मंगल, हो रहा धरती पे दंगल,

पाँव पायल बाँध लय पर,

पग जमातीं गोरियाँ।

वेब पर अप्रकाशित व मौलिक

मेरे नवगीत संग्रह "हौसलों के पंख "में संग्रहीत

  

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Comment by Saurabh Pandey on March 26, 2014 at 6:36pm

मन झूम गया आदरणीया कल्पना जी. कहन की शैली भी जमी है.

हार्दिक बधाइयाँ.

Comment by कल्पना रामानी on March 25, 2014 at 10:28pm

आदरणीय ओमप्रकाश जी, वंदना जी, सावित्री जी, प्रोत्साहित करने के लिए आप सबका हृदय से धन्यवाद

Comment by Omprakash Kshatriya on March 11, 2014 at 8:43pm

कल्पना जी , आप ने बहुत सुन्दर नवगीत लिखा है . भाव अच्छे है . प्रस्तुतीकरण सराहनीय है .

Comment by Savitri Rathore on March 11, 2014 at 4:17pm

आ० कल्पना जी ,वसंत के मादक रंग में डूबी सुन्दर रचना! बधाई हो।

Comment by vandana on March 11, 2014 at 5:28am

वाह आदरणीया मन फागुन के रंगों से सराबोर हो रहा है 

Comment by कल्पना रामानी on March 10, 2014 at 11:04pm

सरिता जी, सराहना पूर्ण शब्दों के लिए आपका मन से धन्यवाद/सादर

Comment by कल्पना रामानी on March 10, 2014 at 11:03pm

आदरणीय लक्ष्मण जी, बहुत बहुत धन्यवाद आपका

Comment by कल्पना रामानी on March 10, 2014 at 11:02pm

आदरणीय सत्यनारायण सिंह जी, आपकी प्रोत्साहित करती हुई टिप्पणी से मन को अपर हर्ष हुआ। आपका हार्दिक आभार

Comment by कल्पना रामानी on March 10, 2014 at 11:00pm

आदरणीय शिज्जु जी, प्रोत्साहित करती हुई टिप्पणी के लिए आपका हृदय से धन्यवाद

Comment by कल्पना रामानी on March 10, 2014 at 10:59pm

 आदरणीय जितेंद्र जी गीत पर सुंदर प्रतिक्रिया देने के लिए हार्दिक धन्यवाद

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