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आज के बाज़ार पर.. (नवगीत) // --सौरभ

बिस्तर-करवट-नींद तक
रिस आया बाज़ार

हर कश से छल्ले लिए

बातें हुई बवण्डरी
मुदी-मुदी सी आँख में
उम्मीदें कैलेण्डरी

गलबहियों के ढंग पर
करता कौन विचार..  

रजनीगंधा सूँघता
लती हुआ मन रेह का
फेनिल-कॉफ़ी घूँट पर
बाँध तोड़ता देह का

अधलेटे म्यूराल* पर
बाँच रहा अख़बार

खिड़की के बाहर हवा
इतनी कब निर्लिप्त थी
गुलमोहर के गाल पर
होठ धरे संतृप्त थी

उसके दिये रुमाल पर
आँकी थी तब प्यार..

******
-सौरभ

(मौलिक एवं अप्रकाशित)
******

*म्यूराल - दीवार पर उगी हुई मूर्तियाँ, भित्तिचित्र

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Comment

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Comment by vijay nikore on January 22, 2014 at 7:44am

 

सर्वथा एक नवीन प्रस्तुति ! अति सुन्दर और मनोहारी। आपको हार्दिक बधाई, आदरणीय सौरभ जी।

 

सादर,

विजय निकोर

 

Comment by Neeraj Neer on January 21, 2014 at 8:26pm

बहुत सुन्दर .. बाजार वाद के अवांछित प्रभावों का बहुत सुन्दर चित्रण किया है 

रजनीगंधा सूँघता 
लती हुआ मन रेह का 
फेनिल-कॉफ़ी घूँट पर 
बाँध तोड़ता देह का

अधलेटे म्यूराल* पर 
बाँच रहा अख़बार .. क्या कहने उम्दा ख्याल ..  सिर्फ लती हुआ मन रेह का .. बात मुझे स्पष्ट नहीं हुई ... बाजार वाद ने सभी नैतिक एवं जीवन मूल्यों को बदल कर ही रख दिया है .. 

Comment by Alka Gupta on January 21, 2014 at 7:28pm

वाह्ह्हह्ह मार्मिक भाव पूर्ण सुंदर अभिव्यक्ति ..........

खिड़की के बाहर हवा
 
इतनी कब निर्लिप्त थी 
गुलमोहर के गाल पर 
होठ धरे संतृप्त थी

उसके दिये रुमाल पर 
आँकी थी तब प्यार..........लाजवाब ......सादर वन्दे 

 

Comment by Arun Sri on January 21, 2014 at 12:49pm

ओह्ह ! कितना वीभत्स दृश्य और दयनीय भी -
//बिस्तर-करवट-नींद तक रिस आया बाज़ार//


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Comment by गिरिराज भंडारी on January 20, 2014 at 9:52pm

आदरणीय सौरभ भाई , लाजवाब नवगीत रचना के लिये आपाको हार्दिक बधाइयाँ ॥

Comment by कल्पना रामानी on January 20, 2014 at 6:30pm

खिड़की के बाहर हवा
इतनी कब निर्लिप्त थी
गुलमोहर के गाल पर
होठ धरे संतृप्त थी

उसके दिये रुमाल पर
आँकी थी तब प्यार..

बहुत सुंदर भाव चित्र! मन में उतारने के लिए बार बार पढ़ा। बहुत बहुत बधाई आपको आदरणीय सौरभ जी

Comment by coontee mukerji on January 20, 2014 at 3:30pm

बिस्तर-करवट-नींद तक
रिस आया बाज़ार.....................
खिड़की के बाहर हवा
इतनी कब निर्लिप्त थी
गुलमोहर के गाल पर
होठ धरे संतृप्त थी

उसके दिये रुमाल पर
आँकी थी तब प्यार.. ......सामयिक स्थिति की शुरूआत से ......आपने रचना का अंतिम बंध में कितनी जीवन की सुलभ आशाएं जोड़ दी है...बार बार पढ़ने को मन चाहेगा....आपके विचार विनिमय  का बहुत ही सुंदर उदाहरण. आदरणीय सौरभ जी.सादर

Comment by mohinichordia on January 20, 2014 at 10:45am

भौतिकतावाद, नयेपन की आंधी का व्यक्ति की सोच पर हावी हो जाना,  सम्पूर्ण रचना में दिखता है | " रिस आया बाज़ार "  "अधलेटे म्युराल पर ",  आ. सौरभ  जी ! अच्छा लगा  नवगीत |

Comment by वीनस केसरी on January 20, 2014 at 2:49am

बिस्तर-करवट-नींद तक
रिस आया बाज़ार/////           

वाह "रिस आया" के क्या कहने

Comment by नादिर ख़ान on January 19, 2014 at 1:06pm

बिस्तर-करवट-नींद तक 
रिस आया बाज़ार 

हर कश से छल्ले लिए

बातें हुई बवण्डरी 
मुदी-मुदी सी आँख में
उम्मीदें कैलण्डरी

आदरणीय सौरभ सर क्या चित्र उकेरा है अपने, बहुत ख़ूब...

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