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कहा कब कि दुनिया ये ज़न्नत नहीं है

तुम्हे पा सकें ऐसी किस्मत नहीं है //1//

मोहब्बत को ज़ाहिर करें भी तो कैसे

पिघलने की हमको इजाज़त नहीं हैं //2//

तो वादों की जानिब कदम क्यों बढ़ाएं
निभाने की जब कोई सूरत नहीं है. //3//

बहुत सब्र है चाहतों में तुम्हारी

नज़र में ज़रा भी शरारत नहीं है //4//

सुलगती हुई आस हर बुझ गयी, पर

हमें आँधियों से शिकायत नहीं है //5//

मौलिक और अप्रकाशित 

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on December 19, 2013 at 4:35pm

अहा अहा तो आदरणीया राजेश जी आपको सभी शेर पसंद आये.... तो फिर तो बस क्या कहने :D)))))

सादर 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on December 19, 2013 at 4:31pm

आदरणीया अन्नपूर्ण बाजपेयी जी 

ग़ज़ल पर आपकी सराहना के लिए सादर आभारी हूँ... आपके सुझाए परिवर्तन से तो मिसरा ही बेबह्र हो जाएगा..:)

स्नेह के लिए धन्यवाद 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on December 19, 2013 at 4:30pm

प्रिय प्राची ग़जल के सभी शेर पसंद आये किन्तु जो सबसे ज्यादा पसंद आया था उसे लिखा था ---

न वादों तलक बढ़ सकेंगे कभी हम

निभाने की जब कोइ सूरत नहीं है -----वाह्ह्ह मेरे ख्याल से ये बेहतरीन रहेगा पूर्णतः भाव स्पष्ट है,बाकी प्रधान सम्पादक जी क्या कहते हैं देखना है . 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on December 19, 2013 at 4:29pm

ग़ज़ल पर आपकी उपस्थिति के लिए धन्यवाद आ० श्याम नारायण वर्मा जी 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on December 19, 2013 at 4:29pm

आदरणीया मीना पाठक जी 

ग़ज़ल पर शेर दर शेर आपकी उत्साहवर्धक टिप्पणी के लिए बहुत बहुत धन्यवाद 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on December 19, 2013 at 4:26pm

आदरणीय गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी 

अशआर आपको पसंद आये यह मेरे लिए परम सन्तोष की बात है.. सादर धन्यवाद.

आदरणीय प्रधान सम्पादक महोदय जी की छलनी से तो सभी रचनाओं को शुरुवात में गुज़रना ही होता है... :) और आपका पारखी विश्लेषण व मार्गदर्शन सदैव ही सकारात्मक संवर्धन का कारण होता है.

सादर.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on December 19, 2013 at 4:19pm

आदरणीया राजेश कुमारी जी 

ग़ज़ल के कुछ एक शेर आपको पसंद आये ..ये मेरे लिए बहुत संतोष की बात है... 

आ० प्रधान सम्पादक जी द्वारा इंगित किये गए शेर में कुछ परिवर्तन सोचे हैं ..देखते हैं सही हैं या गलत :))

सादर धन्यवाद 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on December 19, 2013 at 4:11pm

आदरणीय प्रधान सम्पादक महोदय,

प्रस्तुत ग़ज़ल पर आपकी हौसला अफजाई के लिए बहुत बहुत आभार. आप द्वारा सराहा गया शेर मेरे दिल के भी बहुत करीब है.. सादर.

न वादों तलक बढ़ सकेंगे कभी हम

मुकरना हमारी भी आदत नहीं है..............आदरणीय 'हमारी भी' नें दोनों मिसरों को अन्सिन्क्रोनाइज्ड सा कर दिया है...

परिवर्तन के लिए दो ऑप्शन और हैं...

1. 

न वादों तलक बढ़ सकेंगे कभी हम

निभाने की जब कोइ सूरत नहीं है 

2. 

कि वादों तलक हम बढ़ें भी तो क्योंकर 

यकीं से बड़ी जब इबादत नहीं है 

कृपया एक बार देख कर मार्गदर्शन करें कि कौन सा परिवर्तन सही रहेगा..

सादर. 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on December 19, 2013 at 3:31pm

आदरणीय अविनाश बागडे जी 

इस ग़ज़ल प्रयास पर ओबीओ शैली में शेर दर शेर आपके द्वारा उदात्त सराहना मिलना हर्षित कर रहा है 

सादर धन्यवाद 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on December 19, 2013 at 3:29pm

आदरणीया वंदना जी 

ग़ज़ल के कुछ अशआर आपको पसंद आये, यह जान अच्छा लगा है 

सादर धन्यवाद 

कृपया ध्यान दे...

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