एक रात अचानक पुलिस वाले उसे उग्रवादी बता कर घर से उठा कर ले गए. क्या क्या ज़ुल्म नहीं किये गए थे उस पर. वह चीख चीख कर खुद को बेनुगाह बताता रहा लेकिन सब कुछ सुनते हुए भी सरकारी जल्लाद बहरे बने रहे. यातनाएं सहते सहते तक़रीबन छह महीने बीत गए थे. तभी एक दिन सरकार ने अपनी नई नीति के अनुसार उसे रिहा कर दिया ताकि वह भी राष्ट्र की मुख्य धारा में शामिल हो सके. उसके वापिस लौटने से घर में ख़ुशी का वातावरण था, लेकिन वह जड़वत बैठा न जाने कहाँ खोया रहता. वृद्ध पिता ने एक दिन उसके कंधे पर हाथ रखकर पूछा:
"बहुत दिन हो गए तुम्हें वापिस आए हुए, कुछ काम काज का सोचा?"
"नौकरी तो अब मिलने से रही..... तो ……"
"बेटा, अगर कहो तो लोन लेकर तुम्हें एक टैक्सी दिलवा दें?"
"टैक्सी नहीं, मुझे एक बन्दूक दिलवा दो बापू."
अंदर की आग अब उसकी आँखों में उतर आई थी।
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(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आपकी इस सुन्दर प्रतिक्रिया ने मेरा उत्साह बढ़ाया है, सादर धन्यवाद आ० राजेश कुमारी जी.
आपने रचना समय दिया और पसंद किया, मैं इसके लिए हृदयतल से आपका आभार व्यक्त करता हूँ आ० अविनाश बागडे जी.
आपकी बधाई सर आँखों पर आ० वंदना जी, सादर धन्यवाद
धन्यवाद प्रिय गीतिका जी.
डॉ गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी, आपके उत्साहवर्धन से ह्रदय गदगद है, सादर धन्यवाद स्वीकारें।
रचना के मर्म तक पहुँचने के लिए हार्दिक आभार भाई शुभ्रांशु जी.
धन्यवाद आ० महेश्वरी जी.
धन्यवाद श्याम नारायण वर्मा जी
दिल से शुक्रिया भाई संजय मिश्रा हबीब जी.
उत्साहवर्धन हेतु दिल से धन्यवाद भाई राजेश कुमार मृदु जी.
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