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मैं.. बस एक अंश..

उस दिव्य ज्योति की अंश मात्र..
हूँ उस असीम की कृपापात्र..
इस रंगमंच पे जीना है..
कुछ वर्ष-माह मुझे मेरा पात्र..

कुछ ज्ञान कहीं जो सुप्त सा है..
उसको जड़ता से मुक्त करूँ..
वो प्रेम भाव जो लुप्त प्रायः..
प्रयत्न से नवसंचार  करूँ..

अन्तिम क्षण तक जी लेना है..
घट ज्ञान से भी भर लेना है..
उस ज्ञान को वितरित करना है…
मन नेह से सिंचित करना है..

फिर जी कर अपना रंग अंश..
सफल सुपात्र करके ये पात्र..
माटी-माटी हो जाना है..
उस दिव्य में फिर खो जाना है…

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Comment by Lata R.Ojha on January 17, 2011 at 12:53am
धन्यवाद गणेश भाई  :)

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on January 16, 2011 at 3:34pm

फिर जी कर अपना रंग अंश..
सफल सुपात्र करके ये पात्र..
माटी-माटी हो जाना है..
उस दिव्य में फिर खो जाना है…

 

वाह क्या बात है , बिलकुल सूफियाना अंदाज , अंश को अंशी तक मिल जाने का नाट्यक्रम, सीधे और सपाट शब्दों मे जीवन की हकीक़त बता दिया है आपने | बधाई लता बहन इस सुंदर काव्य कृति पर |

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