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देख तो ले तिलमिला कर ( गज़ल ) गिरिराज भंडारी

2122         2122

खुश हुआ खुद को भुला कर

या कहूँ मै तुझको पा कर

खुद को भी मै ने सताया 

दोस्ती को आजमा कर

ज़िंदगी का बोझ सर पे

चल रहा हूँ लड़खड़ा कर

मैने सच को सच कहा है

तू गिला से अब मिला कर

दर्द पिघले ,बह के निकले

कुछ तो ऐसा सिलसिला कर

हाथ चाहे तू झटक दे

मैने रक्खा दिल मिलाकर

ग़ैर के आंसू कभी पी

देख तो ले तिलमिला कर

तेरे अन्दर आग है तो

जुगनुओं सा ही जला कर 

ले धनक से रंग तू भी

फूल के जैसे खिला कर

*********************

मौलिक एवँ अप्रकाशित

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Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on October 16, 2013 at 10:59am

ज़िंदगी का बोझ सर पे

चल रहा हूँ लड़खड़ा कर

दर्द पिघले ,बह के निकले

कुछ तो ऐसा सिलसिला कर

एक से बढकर एक शेर, खास यह दो पसंदीदा, लाजवाब गजल, दिली दाद कुबूल कीजिये आदरणीय गिरिराज जी

Comment by Nilesh Shevgaonkar on October 16, 2013 at 10:49am

तेरे अन्दर आग है तो

जुगनुओं सा ही जला कर .. क्या कहने .. बधाई 

कृपया ध्यान दे...

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