(बह्र: हज़ज़ मुसम्मन सालिम )
१२२२ १२२२ १२२२ १२२२
मुफाईलुन मुफाईलुन मुफाईलुन मुफाईलुन
तुम्हारा प्रेम ही अक्सर मुझे मगरूर करता है
तुम्हारा प्रेम ही अक्सर मुझे मजबूर करता है
तुम्हारा प्रेम ही खुशियों का इक साधन मेरी खातिर
तुम्हारा प्रेम ही खुशियों से कोसो दूर करता है,
तुम्हारा प्रेम ही हिम्मत मुझे मुश्किल घड़ी में दे,
तुम्हारा प्रेम ही तो हौंसला भी चूर करता है
तुम्हारा प्रेम ही मरहम बने जख्मों पे लग जाए ,
तुम्हारा प्रेम ही तो घाव को नासूर करता है
तुम्हारा प्रेम ही अस्तित्व मिटाने को सदा आतुर,
तुम्हारा प्रेम ही रक्षा मेरी भरपूर करता है...
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
क्या कमाल है !! बधाई भाई...
शुभ-शुभ
वाह वा भाई
जिंदाबाद जिंदाबाद
क्या मुरस्सा ग़ज़ल हुई है ...
इस अभिनव प्रयोग की सफलता पर आपको शत शत बधाई
एक एक शेर पर ढेरो दाद ,,,,,
अस्तित्व = २२१ होता है
ज़रा इस मिसरे को फिर से देखिएगा
बहुर ही सुन्दर रचना आदरणीय अरुण जी .. बधाई
बहुत सुन्दर प्रस्तुति! आपको हार्दिक बधाई!
लेकिन आपके कद के हिसाब से ये रचना कमतर है!
सादर!
प्रेम के विरोधाभास का लाजावाब प्रदर्शन । संयोग वियोग श्रृंगारित रचना पर बधाई बधाई.................
प्रिय अरुण जी,
बहुत ही प्यारी मुसलसल गजल पढने को मिली सभी शेर बहुत उम्दा ये बहुत ही प्यारा लगा
तुम्हारा प्रेम ही मरहम बने जख्मों पे लग जाए ,
तुम्हारा प्रेम ही तो घाव को नासूर करता है - बधाई हो
तुम्हारा प्रेम ही अस्तित्व मिटाने को सदा आतुर,
तुम्हारा प्रेम ही रक्षा मेरी भरपूर करता है... ....... क्या बात है बहुत ही सुंदर .... बधाई आदरणीय अरुण जी
वाह आदरणीय भाई अरुण शर्मा जी ,बहुत सुन्दर ग़ज़ल हुई है /
बहुत बहुत बधाई आपको //सादर
प्रेम के रंग में सराबोर सुन्दर ग़ज़ल ... प्रेम को पूर्णतया परिभाषित करती हुई .. हर अशआर प्रेम की नई संभावनाओं और सीमाओं को तलाशता हुआ .. वाह! दिली मुबारकबाद कुबूल करें !
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