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प्रलय या आपदा [आल्हा छंद ] प्रथम प्रयास

रूद्र रूप ले आए भोले ,मचा प्रलय से हाहाकार
मानव आया कुदरत आड़े,उजड़ गए लाखों परिवार
यहाँ जिन्दगी चहका करती,अब हैं लाशों के अम्बार
दोहन लेकर आया विपदा,हम मानस ही जिम्मेवार


उमड़ घुमड़ बादल जो आए,छम छम कर आई बरसात
ध्वस्त हुए सब मंदिर मस्जिद,दिन में ही हो आई रात
कुदरत हुई खून की प्यासी, प्रलय मचा है चारों ओर
कुपित शिवा जलमग्न हो गए,आया है कलयुग घनघोर

      ..............मौलिक व अप्रकाशित...............

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Comment by Sarita Bhatia on June 27, 2013 at 11:22pm

प्रिया गीतिका जी हार्दिक अभिनन्दन बधाई हेतु 

Comment by Sarita Bhatia on June 27, 2013 at 11:20pm

आदरणीय D P Mathur जी नमस्कार ,आपका हार्दिक आभार मेरे उत्साह वर्धन के लिए 

Comment by ram shiromani pathak on June 27, 2013 at 10:17pm

मार्मिक चित्रण के साथ बहुत ही ज़ोरदार प्रस्तुति ///हार्दिक बधाई आदरणीया सरिता जी//////////

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on June 27, 2013 at 10:02pm

शानदार प्रस्तुति।  हार्दिक बधाई स्वीकारें।  सादर,

Comment by वेदिका on June 27, 2013 at 9:42pm

सच कहा आपने आदरणीया सरिता जी!

यह विनाश की बेल हमने ही रोपी है और इसके फल हमे ही लीलने को आतुर है। दुःख की बात तो ये है की हममे से कोई प्रकृति के विरुद्ध कर्म करे, भुगतान समस्त मानव समुदाय को ही करना है। 

प्रथम प्रयास निश्चित है बहुत सार्थक हुआ है, बधाई प्रेषित है!!    

Comment by D P Mathur on June 27, 2013 at 8:31pm

यहाँ जिन्दगी चहका करती,अब हैं लाशों के अम्बार
दोहन लेकर आया विपदा,हम मानस ही जिम्मेवार !
आदरणीया सरिता जी शायद कहीं ना कहीं हम ही इसके जिम्मेवार हैं सीख देती इस रचना की बधाई !

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