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ग़ज़ल - मंडी से आढ़त तक सबकी पर्ची कटी हुई !

ग़ज़ल - 

कुछ होनी कुछ अनहोनी का मेला  ही तो है ,

ये जीवन क्या माटी का एक ढेला ही तो है ।

साँसों की झीनी चादर पर रिश्तों के गोटे ,

भीड़ में भी होकर  हर शख्स अकेला ही तो है ।

इस घर से उस घर तक जाने में रोना हँसना ,

सब कुछ गुड्डे गुड़ियों का एक खेला ही तो है ।

सुख दुःख का संगम तट ये तन और सारा जीवन ,

आशाओं  उम्मीदों का एक रेला ही तो है ।

सूली ऊपर सेज पिया की छूने को तत्पर ,

हर कबीर अपने उस पी का चेला ही तो है ।

बहर काफिया और रदीफ़ में उलझा उलझा सा ,

कहते जिसको शायर वो अलबेला ही तो है ।

मंडी से आढ़त तक सबकी पर्ची कटी हुई ,

देखो तो ये दुनिया भी एक ठेला ही तो है ।

                                       @ अरुण पाण्डेय "अभिनव"

                                                 [20052013 ]

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Comment by ram shiromani pathak on May 20, 2013 at 9:28pm

सुंदर ग़ज़ल हेतु  बहुत-बहुत बधाई///

Comment by Dr Ashutosh Vajpeyee on May 20, 2013 at 6:42pm

बहुत सुंदर ग़ज़ल कही बन्धु बहुत बधाई 

Comment by Neeraj Nishchal on May 20, 2013 at 6:04pm

सूली ऊपर सेज पिया की छूने को तत्पर ,

हर कबीर अपने उस पी का चेला ही तो है ।

बहुत ही लाज़वाब अभिनव साहब हार्दिक बधाई

Comment by Shyam Narain Verma on May 20, 2013 at 6:01pm
इस प्रस्तुति हेतु बहुत-बहुत बधाई व शुभकामनाएँ.

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