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राज़ नवादवी: एक अपरिचित कवि की कृतियाँ- २९

(आज से उन्नीस वर्ष पूर्व लिखी रचना)

तेरे शहर की सब अलामतें......

 

ये तेरे शहर की तमाम अलामतें

अजनबी हैं मेरे लिये

ये तेरे शहर की दूर तक फैली

अहलेज़र की पुरनूर बस्ती

ये आलीशान मकानों का हुस्नख़ेज़ तसल्सुल

ये ज़ुल्फेसियह सी बेनियाज़

आवारामनिश राहगुज़र

ये रौशनियों की दिलावेज़ जल्वागाह

ये ख़ला-ए-फैज़बख्श

ये फज़ा-ए-तमकनत

ये कारों की होशकुन तग़ोदौ

ये होटलों की रौनक़ोरौ

ये आस्माँ को छूती इमारतों की बुलन्दी

ये रवायात, ये मामूल, ये जीने की पाबन्दी

ये बाज़ारों में परीरूओं की क़दोकाविश

ये जिन्सीयात की इक और नुमाइश

ये तेरे शहर की सब अलामतें

अजनबी हैं मेरे लिये

मुझे इन इश्तेआरों में जीने की आदत नहीं

मुझमें वो फिक्र, वो दानिश, वो फितरत नहीं

मैं कहाँ सँभाल पाऊँगा

तेरी आसाइश के गिराँबार

किन हाथों से थामूँगा

तेरी इशरत की मताअ

किस बिना पे

तेरी हस्ती को तज़ल्ली दूँगा

यूँ ही ताउम्र

तझे झूठी तसल्ली दूँगा

तूने कहा है अगर तो ठीक ही कहा है

मैं इक राहनशीं बेख़ेश बशर

बे दस्तो पा-ए-दर

अहलेएवाँ के  ख़्वाब न देखूँ

 

© राज़ नवादवी

सोशल वर्क हॉस्टल, नई दिल्ली

(०६/०३/१९९३)

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Comment

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Comment by राज़ नवादवी on July 3, 2012 at 10:29pm

ज़रूर सौरभ पाण्डेय साहेब, ज़रूर. आपका मशविरा बिलकुल बजा है. 

 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 3, 2012 at 10:16pm

भाई राज़ जी, आपने मेरे कहे को मान दिया है, इस हेतु शुक़्रगुज़ार हूँ.  अपनी रचनाओं में प्रयुक्त क्लिष्ट और अप्रचलित शब्दों के मायने लिख कर एक रचनाकार अपनी रचना की संप्रेषणीयता को ही बढ़ाता है.

सादर

Comment by राज़ नवादवी on July 3, 2012 at 9:50pm
प्रिय एवं आदरणीय सौरभ जी, आपने सही फरमाया है कि लिखना इक सोच के सच का टूटा आइना ही है. मैं शर्मसार हूँ कि मैंने सकील लफ़्ज़ों के मानी नहीं लिखे. आइन्दा से ख्याल रखूंगा.
आपका ही. 

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 1, 2012 at 3:16pm

नुमाया हर्फ़ इस बात की तस्दीक करते हैं कि सोचना लिखे हुए में पूरी तरह नहीं ढल पाता, मगर जो होता है वो कचोटता है.

एक गुज़ारिश :  आपने रचना में जिन अप्रचलित और क्लिष्ट शब्दों का इस्तमाल किया है वो मुझ जैसे पाठक का खुल्लमखुल्ला इम्तहान लेते लग रहे हैं.  क्लिष्ट शब्द चूँकि सापेक्ष हुआ करते हैं, सो लिखने वाले को शायद पता न चल पाये्, मगर अप्रचलित शब्दों को फिंगर आउट करना तो साहब आसान है.

सादर

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