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नवगीत : बरसो राम धड़ाके से.... संजीव 'सलिल'

नवगीत:

बरसो राम धड़ाके से

संजीव 'सलिल'
*
*
बरसो राम धड़ाके से !
मरे न दुनिया फाके से !

लोकतंत्र की
जमीं पर, लोभतंत्र के पैर
अंगद जैसे जम गए अब कैसे हो खैर?
अपनेपन की आड़ ले, भुना
रहे हैं बैर
देश पड़ोसी मगर बन- कहें मछरिया तैर
मारो इन्हें कड़ाके से, बरसो राम
धड़ाके से !
मरे न दुनिया फाके से !

कर विनाश
मिल, कह रहे, बेहद हुआ विकास
तम की कर आराधना- उल्लू कहें उजास
भाँग कुएँ में घोलकर, बुझा
रहे हैं प्यास
दाल दल रहे आम की- छाती पर कुछ खास
पिंड छुड़ाओ डाके से, बरसो राम
धड़ाके से !
मरे न दुनिया फाके से !

मगरमच्छ
अफसर मुए, व्यापारी घड़ियाल
नेता गर्दभ रेंकते- ओढ़ शेर की खाल
देखो लंगड़े नाचते, लूले
देते ताल
बहरे शीश हिला रहे- गूँगे करें सवाल
चोरी होती नाके से, बरसो राम
धड़ाके से !
मरे न दुनिया फाके से !

-आचार्य संजीव सलिल

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Comment by sanjiv verma 'salil' on September 29, 2010 at 8:58pm
saurabh bagee ho, kare abhinav nitya sawaal.

pooja kare navee ja, avadh haal be-haal..
Comment by Abhinav Arun on September 29, 2010 at 3:33pm
'बहरे शीश हिला रहे- गूँगे करें सवाल
चोरी होती नाके से, बरसो राम
धड़ाके से !
मरे न दुनिया फाके से !'
बहुत खूब सलिल जी ,सामयिक सन्दर्भों में करारा कटाक्ष है .ऐसी ही रचनाएं समय की मांग और उसके सापेक्ष हैं.
Comment by sanjiv verma 'salil' on September 27, 2010 at 7:25pm
बहुत-बहुत आभार बागी जी, सौरभ जी. आपका प्रोत्साहन ही लिखने की प्रेरणा देता है.

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 27, 2010 at 2:48pm
वाह-वा.. वाह-वा.. वाह-वा.. !!
सलिलजी.. मेरा अभिनन्दन..
मन मस्त इस खाके से.. बरसो राम धड़ाके से.. !

आपका ये अलमस्त अंदाज़ और आपकी ऐसी साफ़गोई.. मेरा मन आपके प्रति और भी श्रद्धा से भर गया.

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on September 26, 2010 at 6:17pm
वाह वाह आचार्य जी, या रचना भी खूब है, बरसो राम धड़ाके से , मरे न दुनिया फाके से ,
अच्छी रचना ,
Comment by sanjiv verma 'salil' on September 26, 2010 at 2:10pm
dhanyavad naveen jee, pooja jee.
Comment by Pooja Singh on September 26, 2010 at 1:46pm
आदरणीय आचार्य जी ,
प्रणाम आपने'' नवगीत'' कविता के माध्यम से आज के समाज का सजीव चित्रण प्रस्तुत किया है, कविता की ये पंक्ति बहुत अच्छी लगी { लोकतंत्र की
जमीं पर, लोभतंत्र के पैर
अंगद जैसे जम गए अब कैसे हो खैर?
अपनेपन की आड़ ले, भुना
रहे हैं बैर
देश पड़ोसी मगर बन- कहें मछरिया तैर
मारो इन्हें कड़ाके से, बरसो राम
धड़ाके से !
मरे न दुनिया फाके से !}

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