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त्रिपदिक कविता : प्रात की बात -----संजीव 'सलिल'

त्रिपदिक कविता :

प्रात की बात

संजीव 'सलिल'
*
सूर्य रश्मियाँ
अलस सवेरे आ
नर्तित हुईं.
*
शयन कक्ष
आलोकित कर वे
कहतीं- 'जागो'.
*
कुसुम कली
लाई है परिमल
तुम क्यों सोये?
*
हूँ अवाक मैं
सृष्टि नई लगती
अब मुझको.
*
ताक-झाँक से
कुछ आह्ट हुई,
चाय आ गयी.
*
चुस्की लेकर
ख़बर चटपटी
पढ़ूँ, कहाँ-क्या?
*
अघट घटा
या अनहोनी हुई?
बासी खबरें.
*
दुर्घटनाएँ,
रिश्वत, हत्या, चोरी,
पढ़ ऊबा हूँ.
*
चहक रही
गौरैया, समझूँ क्या
कहती वह?
*
चें-चें करती
नन्हीं चोचें दिखीं
ज़िन्दगी हँसी.
*
घुसा हवा का
ताज़ा झोंका, मुस्काया
मैं बाकी आशा.
*
मिटा न सब
कुछ अब भी बाकी
उठूँ-सहेजूँ.
************

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Comment

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Comment by sanjiv verma 'salil' on September 23, 2010 at 4:26pm
नवीन बागी

बन्दूक छोड़कर

करे प्रशंसा..
*
न छायावाद

न हीं प्रगतिवाद

है धन्यवाद..

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on September 23, 2010 at 9:40am
प्रातः काल मे,
सुंदर त्रिपदिका,
मजा आ गया,

बहुत ही कुशल कारीगरी, अभियन्त्रिक शिल्प, बहुत खूब , जय हो ,

कृपया ध्यान दे...

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