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बाहर बहुत बर्फ है

तुम्हारे देश के उम्र की है
अपने चेहरे की सलवटों को तह करके
इत्मीनान से बैठी है
पश्मीना बालों में उलझी
समय की गर्मी
तभी सूरज गोलियां दागता है
और पहाड़ आतंक बन जाते हैं
तुम्हारी नींद बारूद पर सुलग रही है
पर तुम घर में
कितनी मासूमियत से ढूंढ़ रही हो
कांगड़ी और कुछ कोयले जीवन के
तुम्हारी आँखों की सुइयां
बुन रही हैं रेशमी शालू
कसीदे
फुलकारियाँ
दरियां ..
और तुम्हारी रोयें वाली भेड़
अभी-अभी देख आई है
कि चीड और देवदार के नीचे
झीलों में खून का गंधक है
और पी आई है वह
पानी के धोखे में सारी झेलम
अजीब सी बू में
मिमियाती ...
किसी अंदेशे को सूंघती
कानों में फुसफुसाना चाहती है
पर हलक में पड़े शब्द
चीत्कार में कैद
सिर्फ बिफरन बन
रिरियाते हैं ...
तुम हठात
अपनी झुर्रियों में
कस लेती हो उसे
लगता है
बाहर बहुत बर्फ है !


अपर्णा

Views: 755

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Comment by Aparna Bhatnagar on September 23, 2010 at 10:56am
Thanks! subodh ji..
Comment by Aparna Bhatnagar on September 23, 2010 at 8:09am
सौरभ सर, आपकी टिपण्णी हमेशा की तरह मनोबल प्रदान करती हुई ..

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 23, 2010 at 3:34am
अपर्णा, कहना-लिखना आसान नहीं, उससे आगे, समझाना और भी मुश्किल. ठीक ही कहा-
लगता है
बाहर बहुत बर्फ है !

सिमटी-गुमसी, झुर्रियों से अँटी, ’देश’ की उम्र वाली एक अन्यमनस्का के निर्लिप्त जीवन के मनोविज्ञान को किस आसानी से प्रस्तुत किया है तुमने.. इस प्रतीति को नमस्कार-
"..सूरज गोलियां दागता है
और पहाड़ आतंक बन जाते हैं
तुम्हारी नींद बारूद पर सुलग रही है
पर तुम घर में
कितनी मासूमियत से ढूंढ़ रही हो
कांगड़ी और कुछ कोयले जीवन के"

और सुनो, मैं उन ’रिरियाने’ वाले शब्दों को फिर-फिर समझना चाहूँगा.. क्या सँवारा है, भाई!.. अभिनन्दन.
Comment by Aparna Bhatnagar on September 21, 2010 at 6:30pm
Thanks! subodh ji..
Comment by Subodh kumar on September 21, 2010 at 5:16pm
sunder.. bahut sunder ! achchi kavita ke liye aapko badhaiyaan..
Comment by Aparna Bhatnagar on September 21, 2010 at 5:15pm
Thanks! @ashish ji..
Comment by आशीष यादव on September 21, 2010 at 4:21pm
अपर्णा जी आपने लाजवाब रचना की है| उपमाओं की सुन्दर अभिव्यक्ति| बहुत ही अच्छा लगा पढ़ कर|
Comment by Aparna Bhatnagar on September 21, 2010 at 2:42pm
माफ़ करें गुलज़ार जी के लिखे गीत सुने हैं पर उनकी रचनाएँ पढ़ने का मौका नहीं मिला ... आपने प्रेरित किया है ...
वैसे यदि किसी के असर से कविता निकल पड़े तो कविता लिखने का कोई अर्थ नहीं रह जाता . आप इसे हमारी तल्खी न समझें पर गुलजारी है ये स्वीकार करना मुश्किल है ... बतौर यदि कोई कविता किसी वाद से प्रेरित होकर लिखी गयी तो उसका दायरा सीमित हो जाता है ...
Comment by विवेक मिश्र on September 21, 2010 at 2:36pm
/झीलों में खून का गंधक है
और पी आई है वह
पानी के धोखे में सारी झेलम/

गुलजारी असर साफ़ झलकता है अपर्णा जी.. बहुत-बहुत बढ़िया.
Comment by Aparna Bhatnagar on September 21, 2010 at 9:41am
Thanks! Naveen ji..

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