हर मजहब के दुःख -दर्द एक सामान होते हैं
फिर क्यूँ पराई पीर से हम अनजान होते हैं
क्यूँ फेंकते पत्थरों को हम उनके घरों पर
जब खुद के भी तो शीशों के मकान होते हैं
उन लोगों की कम सोच का क्या करियेगा
जिनकी वजह से रिश्ते कुछ बेजान होते हैं
बन जाते हैं वो सफ़र में मुसीबतों के सबब
कई दफह जब रास्ते बेहद सुनसान होते हैं
मत छूना कभी जो लावारिस पड़े हैं राह में
मुमकिन हैं छुपे मौत का वो सामान होते हैं
मिलके गले वो घोंप दे खंजर ये क्या पता
हिज़ाब -ए- दोस्ती की आड़ में शैतान होते हैं
बड़े ही खौफनाक होते हैं वो चेहरे खूबसूरत
जिनकी सूरत में छुपे बदसूरत इंसान होते हैं
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Comment
hardik dhanyavaad ganesh ji aapne sher ke beech me gap de diya.
bahut bahut aabhar Ganesh ji meri ghazal ko saarthakta mil gai. par post karte vaqt har sher me gap diya tha pata nahi publish ek saath kaise ho gai.ghazal me sher alag alag achche lagte hain.
आदरणीया राजेश कुमारी जी , कथ्य बहुत ही बढ़िया है, काफिया रदीफ़ का निर्वहन भी आपने बढ़िया से किया है, बधाई स्वीकार करे |
dear Prachi thanks a lot .
Pradeep Kumar ji aapko meri ghazal pasand aai iske liye shukria.
फिर क्यूँ पराई पीर से हम अनजान होते हैं
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