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(छंद - दुर्मिल सवैया)

जब मौसम कुंद हुआ अरु ठंड की पींग चढी, फहरे फुलकी
कटकाइ भरे दँत-पाँति कहै निमकी चटखार धरे फुलकी
तब जीभ बनी शहरी नलका, मुँह लार बहे, लहरे फुलकी
लफसाइ हुई पनियाइ हुई, लपिटाइ हुई, वह रे ! फुलकी  ||1||
 
खुनकी-खुनकी अस जाड़ि क मौसम में सहमा दिन भार लगै
उपटै सब बालक-वृंद जुड़ैं,  बन पाँत खड़े,  भरमार लगै 
घुलि जाय बताश जे पानि भरा मुँह-जीभ के बीच न सार लगै
अठ-रंग मसाल के स्वाद हैं नौ, तनि तींत भलै चटखार लगै  ||2||
 
चुप चाव से चाट रहे चुड़ुआ चखलोल बने घुरियावत हैं
हुनके मिलिगा तिसरी फुलकी, हिन एक लिये मुँह बावत हैं
कब आय कहौ अगिला फिर नंबर, जोहत हैं, चुभिलावत हैं
जब हाड़ के तोड़ सँ जाड़ पड़े,  लरिके रसना-सुख पावत हैं  ||3||

********************

--सौरभ 

********************

फुलकी - गोलगप्पे , गुपचुप, पानीपुरी, पानी-बताशे (इलाहाबाद परिक्षेत्र में गोलगप्पे को फुलकी कहते हैं) ; नलका - बम्बा , पानी की टोंटी ; खुनकी - सिहरन पैदा करने वाली ; उपटै - इकट्ठे आना , बहुतायत में होना ; सार - शेष बचा हुआ भाग , सिट्ठी ; तनि - कुछ , थोड़ा ; तींत - तीखा ; चड़ुआ - अंजुरी , हथेली का पात्र रूप ले लेना ; चखलोल - मुँह खोले होना , अक्सर चड़ियाँ चोंच खोले कुछ जोहती दीखती हैं ; घुरियाना - नज़दीक होने की क्रिया ; कुछ बार-बार करना ; हुनके - उनको ; हिन - ये , यह ; लरिके - बच्चे ; हाड़ - हड्डी ;  रसना - जीभ

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*********

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on January 3, 2012 at 10:04pm

भाई एके राजपूतजी,  भाई अभिनव जी  और आदरणीया नीलमजी, आप सभी को मेरा हार्दिक धन्यवाद.  आप सभी द्वारा रचना का पसंद आना मेरे रचनाकर्म का अनुमोदन है. 

सधन्यवाद.

 

Comment by Neelam Upadhyaya on January 3, 2012 at 10:00am

वाह ! क्या फुल्की है . ऊपर से छंद के चटखारे !

Comment by Abhinav Arun on January 2, 2012 at 9:56pm
आय हाय इन फुल्कियों ने तो मन मोह लिया आदरणीय श्री सौरभ जी ! कविता में जो चट्खारापन पन है वह वाकई इलाहाबादी सेबिया अमरुद की तरह  | भीतरीया मिठास !! जय हो :-)) नव वर्ष की इस सौगात के लिए फुलकियों के साथ हम सब की ओर से बधाई की टिकिया O
Comment by AK Rajput on January 2, 2012 at 1:27pm
उम्म... मुंह में  पानी भर आया   .बहुत नमकीन  और चटकीली रचना है सौरभ  जी..  :)
टॉप क्लास रचना के लिए बधाई   

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on January 2, 2012 at 12:39pm

जैसे काव्य गोष्ठी हुई है वैसे ही एक फुलकी गोष्ठी भी आयोजित कराइ जाए ...

बहुत अच्छा प्रस्ताव, दुष्यंतजी. किन्तु भौतिक रूप में प्रतियोगिता तो नहीं परन्तु बिम्ब और भाव के तौर पर यह प्रतियोगिता तो, समझिये, शुरू हो ही गयी है.  ’फुलकी’ का हम सब वस्तुतः छंदबद्ध मज़ा ही तो ले रहे हैं.  बस एक-एक छंद की अपेक्षा मज़ा लेने वालों से भी, देखिये फुलकी के स्वाद का मज़ा ही मज़ा   .. .   :-)))))

 

Comment by दुष्यंत सेवक on January 2, 2012 at 11:38am

वाह वाह सौरभ सर जी, इतनी चटखारे दार रचना नए वर्ष के पहले कार्य दिवस के दिन पढ़ के छुट्टी की याद ताज़ा हो आई... निश्चय ही जिस फुलकी वाले से collaborate करके आपने यह रचना लिखी होगी यानी की जिसकी फुलकी का रसास्वादन करके आपने इस मसालेदार रचना को लिखा है.. वाकई में वह फुलकी बड़ी ही स्वादिष्ट बनाता होगा... :) आदरणीया शन्नो जी ने कम्पीटीशन की बात कही है सो प्रबंधन उस पर भी विचारे और जैसे काव्य गोष्ठी हुई है वैसे ही एक फुलकी गोष्ठी भी आयोजित कराइ जाए ...    :)))))


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on January 1, 2012 at 9:58pm

नीरज जी,  विश्वास है, अब आपने छंद का मजा लिया होगा. प्रस्तुत छंद और कथ्य पर भी अपनी प्रतिक्रियाओं से अवगत करायें . 

धन्यवाद.

 

Comment by Shanno Aggarwal on January 1, 2012 at 5:09pm

ओ बी ओ की तरफ से यदि कभी गोलगप्पे खाने का कम्पीटिशन हो तो कृपया मुझे सूचित करें :))))))))


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on January 1, 2012 at 11:26am

संजय हबीब जी, बहुत-बहुत धन्यवाद .. . अच्छा लगा कि इस रचना ने मन-भाव पैदा किया.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on January 1, 2012 at 11:24am

इस बात पर तो खोमचे वाले से झगडा हो जाये...

अरे भाई, यह खोमचे वाले की गलती थोड़े ही न है. यह तो फुलकी ’गपकने’ वालों की अटपटी गिनती का असर है कि हर किसी के मन में ’अगला हमसे कुछ अधिक खा गया’ का भाव बन जाता है. या, लगता है कि ’अरे, अभी ही पूरे हो गये !’ .. ... 

हा हा हा हा.. .

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