दोहा सलिला:
 एक हुए दोहा यमक:
-- संजीव 'सलिल'
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 पानी-पानी हो रहे, पानी रहा न शेष.
 जिन नयनों में- हो रही, उनकी लाज अशेष..
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 खैर रामकी जानकी, मना जानकी मौन.
 जगजननी की व्यथा को, अनुमानेगा कौन?
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 तुलसी तुलसी-पत्र का, लगा रहे हैं भोग.
 राम सिया मुस्का रहे, लख सुन्दर संयोग..
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 सूर सूर थे या नहीं, बात सकेगा कौन?
 देख अदेखा लेख हैं, नैना भौंचक-मौन..
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 तिलक तिलक हैं हिंद के, उनसे शोभित भाल.
 कह रहस्य हमसे गये, गीता का नरपाल..
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 सिलक पहनकर गिन रहीं, सिलक सिठानी आज.
 लक्ष्मी को लक्ष्मी गहे, आप न पूछें राज..
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 राज राज के काज का, गोपनीय श्रीमान.
 श्री वास्तव में पाये बिन, श्रीवास्तव श्री-वान..
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 दीक्षित दीक्षित हैं नहीं, पर दीक्षा दें नित्य.
 विस्मित होकर देखता, नभ से 'सलिल' अनित्य..
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 चकित दीप्ति की दीप्ति से, दीपक करे सवाल.
 भूल तेल को पूजता, जग क्यों केवल ज्वाल??
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 तेल लगाते तेल बिन, कैसा है यह खेल?
 बिन नकेल ही नाक में, डालें आप नकेल..
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 हार रहे जो खेल में, गेंद न पाते झेल.
 सजा मिले कविताओं को, सुनें-गुनें चुप झेल..
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 Acharya Sanjiv Salil
 
 http://divyanarmada.blogspot.com
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