रमिया बड़ी खुश थी । शहर जो जा रही थी - अपने पोते को देखने जाने का आखिर उसे मौका मिल ही गया था । यह अवसर बनने में समय लग गया और देखते देखते उसका पोता सात साल का हो गया था । महानगर की भागम-भाग भरी जिन्दगी में से न तो उसका बेटा ही समय निकाल पा रहा था और ना ही रमिया गाँव की अपनी खेती गृहस्थी में से समय निकाल पा रही थी । या यूँ कहें कि कुछ अधिक ही व्यस्त थे दोनों ही माँ-बेटे । और रमिया का पोता सात साल का हो चला ।
महानगर के एक कोने में रह रहे अपने बेटे के घर का पता बहुत मुश्किल से ढूँढ़ पाई थी । बेटे के घर के दरवाज़े के बाहर तक पहुँच कर उसे लगा जैसे बहुत बड़ा मैदान मार लिया हो । उसकी ख़ुशी का पारावार नहीं था । आगे बढ़कर दरवाजा पर लगी काल-बेल को दबा दिया । सात-आठ साल के बच्चे ने दरवाजा खोला । रमिया को देख कर उसके चेहरे पर अपरिचय के भाव थे । रमिया ने उसे बताया कि वह उसकी दादी है । लेकिन बच्चा निर्विकार चेहरा लेकर घर के अन्दर चला गया और रमिया के कान में उसके कहे वाक्य गूँजते रह गए - "माँ बाहर एक बुढ़िया आई है और कह रही है कि वो मेरी दादी है ......................।"
Comment
ओह्ह आज जिस तरह से माँ-बाप को फ़ुर्सत ही नही की बच्चों को रिश्तों की परिभाषा समझायें। ऎसा तो होना ही था।
एक सार्थक लघु कथा के लिये आपको बधाई नीलम जी।
सादर...
इस लघुकथा के लिये धन्यवाद.
Dhanyawaad Brij Bhushan ji.
अच्छी रचना.... ...हालाँकि इसमें नई पीढ़ी को दोष देना .उचित न होगा ..कोई किसी के प्यार दुलार को भूलाना या भूलना नहीं चाहता |
Dhanyawaad Dushyant ji.
बेहद मर्मस्पर्शी रचना है नीलम जी. शहरों की भागदौड़ मे पड़कर नयी पीढ़ी के बच्चे दादा दादी और गाँव के प्यार को तो लगभग भूल ही चले हैं. बहुत ही कम शब्दों मे एक बड़े कड़वे यथार्थ से परिचय करने के लिए आपको हार्दिक आभार एवं बधाई
जी गणेश जी और अरुण जी, धन्यवाद । बिल्कुल ठीक कह रहे हैं । गाँवों का जिस तेजी से शहरीकरण होता जा रहा है, लोगों में रिश्ते-नातों का महत्व कम होता जा रहा है । और संस्कार की क्या बात करें - पाश्चात्य संस्कृति किस कदर समाज पर हावी होती जा रही है यह तो हमसे छुपी बात नहीं रह गई है । इसके अंधानुकरण में हम अपनी संस्कृति भूलते जा रहें हैं साथ ही स्वार्थी भी होते जा रहे हैं । पहले जहाँ परिवार में दूसरे सदस्य के बारे में सोचते थे अब परिवार में अपने बारे में सोचते हैं । ऐसे में नाते-रिश्ते निभाने की ना तो फुरसत है और ना ही फिक्र ।
उत्कृष्ट ................ अभिनव ............. साधुवाद स्वीकार करें
सही शहरी विकास और संस्कृति के यथार्थ को दर्शाती रचना ... सच है हम अपने बच्चों को क्या माहौल और संस्कार दे रहे हैं ??? ये बड़ा प्रश्न है | सशक्त रचना बधाई !!
खुबसूरत लघु कथा, सोचने को मजबूर करती यह रचना, कही न कही इसमें रमिया का भी दोष है .....महानगर का भागमभाग तो समझ में आ रहा है पर गाँव का भागम भाग ?
बात सही है कि जैसा संस्कार मिलेगा वैसा ही बच्चा करेगा, पर यह संस्कार भी तो पीढ़ी दर पीढ़ी चलता है ....
भाव प्रधान और अर्थ पूर्ण लघु कथा सृजन हेतु आभार नीलम दीदी |
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