जिसे कहते भारत का गौरव
आज उस सम्राट की गाथा कहता हूँ
स्वर्णभूमि जो सुख-समृद्धि की, महिमा उस अमरावती की गाता हूँ॥
विश्व का केंद्र जो विश्व की धुरी थी
जिसे उज्जयिनी नगरी कहता हूँ
कीर्ति सौरभ जिसका चहुँ ओर था फैला, उसे महाकाल से रक्षित पाता हूँ॥
स्वर्ण-रजत मोती-माणिक की न कमी जहाँ पर
धन-धान्य से राजकोष को भरा मैं पाता हूँ
सच्चे परितोष थे नगर के जो, उन्हें संज्ञा नवरत्न से सुशोभित पाता हूँ॥
पहचान करता सच्चा जौहरी
अतुलनीय-अनमोल सम्राट उन्हें मैं कहता हूँ
हर क्षेत्र में महारत हासिल, जिनकी न तुलना किसी से पाता हूँ॥
ज्ञान-ध्यान में महान समय के
जिनके नवरत्नों को अनुपम कहता हूँ
एक से बढ़कर एक थे सारे, जिसका राजा को श्रेय सब देता हूँ॥
प्रधान चिकित्सक धन्वंतरी जिनके
जिन्हें अद्भुत आयुर्वेद का ज्ञाता कहता हूँ
रोग-बीमारी टिक नहीं सकती, जानकार हर औषधियों का उनको पाता हूँ॥
माँ सरस्वती की कृपा जिन पर देखी
लेखनी कालिदास की चमत्कारी कहता हूँ
अंतहीन कीर्ति अद्भुत रचनाएँ, जिनसे अद्भुत काव्य-नाटकों का संग्रह पाता हूँ॥
पत्रकौमुदी विद्यासुंदर के लेखक
वररुचि जिन्हें कवि अनोखा कहता हूँ
तान छेड़ते अतुलनीय ऐसी, मंत्रमुग्ध सभी को पाता हूँ॥
विख्यात जिनकी ज्योतिष गणना
जिन्हें वराहमिहिर महान खगोलशास्त्री कहता हूँ
शोध निरंतर करते रहते, मज़बूत ग्रह-नक्षत्रों पर पकड़ मैं उनकी पाता हूँ॥
किस्से-कहानी से समस्या सुलझाते
कथा वेताल पञ्चविंशतिका की कहता हूँ
भूत-पिशाच व माया के स्वामी, वेताल भट्ट को पाता हूँ॥
यमक काव्य के महान पंडित
कवि विलक्षण घटकर्पर को कहता हूँ
सुंदर रचनाएँ उनकी नीतिसार में, आज भी आनंदित पाठक को पाता हूँ॥
नीति शास्त्र के महाज्ञानी जो
जिन्हें धर्मशास्त्र का रक्षक कहता हूँ
अनेकार्थध्वनिमंजरी के जो रचियता, उन्हें क्षपणक सिद्ध मुनि दिगंबर कहता हूँ॥
मंत्रोच्चारण में प्रवीण रही
जिन्हें ज्योतिष साहित्य की ज्ञाता कहता हूँ
बहुमुखी प्रतिभा की धनी कहलाती, स्वामिनी शंकु माता जिन्हें पाता हूँ॥
सचिव बन जो संरक्षण पाते
संस्कृत पंडित अमर सिंह को कहता हूँ
विलक्षण कवि जो सम्राट के प्यारे, उनकी अमूल्य नवरत्नों में जगह मैं पाता हूँ॥
कला-ज्ञान-विज्ञान के रक्षक
जिनका साहित्य-ज्योतिष उच्च स्तर का कहता हूँ
स्वर्णिम युग था वह भारत का, इसे तब सोने की चिड़िया पाता हूँ॥
न्याय किए थे जो देवी-देवता
शिकार उन्हें शनिदेव के प्रकोप का कहता हूँ
धर्म से अपने डिगे कभी न, उन सम्राट को न्याय की मूर्ति पाता हूँ॥
याचक बन आते जग-जहान से
उनकी प्रतिभा की प्रभा कहता हूँ
दिग-दिगांतर प्रकाशित रहेगी, चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य की महिमा गाता हूँ॥
स्वरचित व मौलिक रचना
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