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देश समूचा पूँजी अपनी - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

हिन्दू भैया!,मुस्लिम भैया!, क्यों करते हो दंगा।
हो जाता है  इस से  जग में, देश  हमारा नंगा।।
एक साथ में रहते  देखो, बीतीं  कितनी सदियाँ।
फिर भी नहीं सुहाने देती, इक दूजे को अँखियाँ।।
*
क्यों इतनी घृणा को मन में, पाल रहे हो अपने।
क्यों अपने हाथों से अपने, जला रहे हो सपने।।
जो मजहब के बने पुरोधा, कितना मजहब मानें।
झाँक कभी जीवन में उनके, ये सच भी तो जानें।।
*
वँटवारे की पीर सहन की, पुरखों ने जो सब के।
वैसी पीर नहीं आँगन में, फिर अब कोई चहके।।
क्यों मजहब की आग जलाकर, फूँक रहे हो रिश्ते।
इस से कभी  न  सूखेंगे  ये, घाव  दिलों के रिसते।।
*
केवल अपना मजहब अच्छा, कह मत आग लगा़ओ।
मन्दिर- मस्जिद  अपने  जाओ, दूरी  पर  न बढ़ाओ।।
नूतन पीढ़ी कुछ तो  समझो, समय कह रहा जागो।
अपनाकर यूँ तनिक सहिष्णुता, कट्टरता को त्यागो।।
*
मजहब का फैलाव नहीं अब, उस को उत्तम करना।
गुण औरों के अपना लेना, अवगुण निज के तजना।।
नूह सरीखा कोई भी  अब, कोना  नहीं जलाना।
देश समूचा पूँजी अपनी, मिल जुल इसे बचाना।।
*
मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

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