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Somesh kumar's Blog – June 2017 Archive (5)

मछली और दाँत

मछली और दाँत

अचानक ! बरसात आती है

सड़क चलती लड़की

भीग जाती है |

एक्वेरियम की छोटी रंगीन

मछली तैर-तैर के

मन रीझ जाती है ||

x x x x x x x x

देखता हूँ टकटकी लगाए

जब तक ना होती ओझल |

“दाना-दाना-दाना-दाना”

उकसाता पुरुष मन चंचल ||

x x x x x x x x x x

बेटी सहसा आ,छेड़ देती बात

हमले से,काँप उठता है गात |

और मैं देखता हूँ छोटी मछली

और बढ़ते हुए बड़े-बड़े दाँत ||

सोमेश कुमार(मौलिक…

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Added by somesh kumar on June 16, 2017 at 2:48pm — 1 Comment

गाँव जबसे कस्बे - -- -

गाँव जबसे कस्बे - - - -

गाँव जबसे कस्बे

होने लगे |

बीज अर्थों के,रिश्तों में

बोने लगे |

गाँव जबसे कस्बे- - - -

पेपसी,ममोज़ चाऊमीन से

कद बढ़ गया |

सतुआ-घुघुरी-चना-गुड़ से

बौने लगे |

पातियों का संगठन

खतम हो गया

बफ़र का बोझ अकेले ही

ढोने लगे |

गाँव जबसे कस्बे- - - -

पत्तलों कुल्ल्हडो की

 खेतियाँ चुक गईं |

थर्माकोल-प्लास्टिक से

खेत बोने लगे…

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Added by somesh kumar on June 15, 2017 at 9:30am — 3 Comments

दृश्य

लोकतंत्र के दड़बे में

मुर्गी जब से मोर हो गई

सावन ही सावन दिखता है

सब कुछ मनभावन दिखता है |

 

लोकतंत्र के पिंजड़े में

कौए जब से कैद हो गए

टांय-टांय का टेर लगाते

सब कुछ मनभावन बतलाते |

 

लोकतन्त्र के फुटपाथों पर

दाना खाता श्वेत कबूतर

बस कूहू-कूहू गाता है

सब मधुर-मधुर बतलाता है |

 

लोकतन्त्र के हरे पेड़ पर

कठफोड़वा हो गया कारीगर

“अहं-बया” चिल्लाता है

सब कुछ अच्छा बतलाता है…

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Added by somesh kumar on June 12, 2017 at 9:00am — No Comments

चुग्गा

   चुग्गा

 

उस अज़नबी स्त्री की

मटकती पतली कमर पे

पालथी मारकर बैठा है

मेरा जिद्दी मन |

पिंजरे का बुढ़ा तोता

बाहर गिरी हरी मिर्च देख

है बहुत ही प्रसन्न  |

x x x x x x x  x

पसीना-पसीना पत्नी आती है

मुझपे झ्ल्ल्लाती है

रोती मुनिया बाँह में डाल

मिर्च उठाकर चली जाती है

x x x x x x x x  x

तोता मुझे और

मैं तोते को

देखता हूँ |

वो फड़फड़ा कर

पिंजरा हिलाता है…

Continue

Added by somesh kumar on June 11, 2017 at 11:32am — 2 Comments

एक दो तीन - -

एक दो तीन- - - एक दो तीन

फिर अनगिन

मन्डराती रहीं चीलें

घेरा बनाए

आतंक के साएँ में

चिंची-चिंची-चिंची

पंख-विहीन |

एक दो तीन- - -

फुदकी इधर से

फुदकी उधर से

घुस गई झाड़ी में

पंजों के डर से

जिजीविषा थी जिन्दा

करती क्या दीन !

एक दो तीन- - -

झाड़ी में पहले से

कुंडली लगाए

बैठे थे विषदंत

घात लगाए

टूट पड़े उस पे

दंत अनगिन | एक दो तीन- - -

प्राणों को…

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Added by somesh kumar on June 10, 2017 at 10:14am — 3 Comments

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