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एक बात जो आरंभ में ही स्‍पष्‍ट कर देना जरूरी है कि यह आलेख काफि़या का हिन्‍दी में निर्धारण और पालन करने की चर्चा तक सीमित है। उर्दू, अरबी, फ़ारसी या इंग्लिश और फ्रेंच आदि भाषा में क्‍या होता मैं नहीं जानता।

पिछले आलेख पर आधार स्‍तर के प्रश्‍न तो नहीं आये लेकिन ऐसे प्रश्‍न जरूर आ गये जो शायरी का आधार-ज्ञान प्राप्‍त हो जाने और कुछ ग़ज़ल कह लेने के बाद अपेक्षित होते हैं।

प्राप्‍त प्रश्‍नों पर तो इस आलेख में विचार करेंगे ही लेकिन प्रश्‍नों के उत्‍तर पर आने से पहले पहले कुछ और आधार स्‍पष्‍टता प्राप्‍त करने का प्रयास करते हैं।  इसके लिये एक और मत्‍ला देखते हैं (यह भी आखर कलश पर प्रकाशित गोविंद गुलशन जी की ग़ज़ल से ही है):

'रौशनी की महक जिन चराग़ों में है
उन चराग़ों की लौ मेरी आँखों में है'
इस ग़ज़ल में शेष काफि़या इस तरह हैं- गुलाबों, दराज़ों, आशियानों, किनारों, प्यालों, रेगज़ारों। इस मत्‍ले को देखते ही कुछ मित्र कह सकते हैं कि 'चराग़ों' और 'ऑंखों' में से बढ़ा हुआ अंश हटा देने से मूल शब्‍द 'चराग़' और 'ऑंख' शेष बचेंगे जो तुक में न होने से मत्‍ला दोषपूर्ण है।

ये जो बढ़ा हुआ अंश हटा कर काफि़या देखने की बात है; यह उतनी सरल नहीं है जितनी समझी जाती है। इसे समझने के लिये शायरी के इल्‍म से काफि़या संबंधी कुछ मूल तत्‍व समझना जरूरी होगा।

एक बात तो यह समझना जरूरी है कि मूल शब्‍द बढ़ता कैसे है।

कोई भी मूल शब्‍द या तो व्‍याकरण रूप परिवर्तन के कारण बढ़ेगा या शब्‍द को विशिष्‍ट अर्थ देने वाले किसी अन्‍य शब्‍द के जुड़ने से। एक और स्थिति हो सकती है जो स्‍वर-सन्धि की है (जैसे अति आवश्‍यक से अत्‍यावश्‍यक)। इन स्थितियों को लेकर काफि़या पर बहुत कुछ कहा गया है लेकिन मूल प्रश्‍न यह है कि काफि़या निर्धारित कैसे हो सकता है और इसमें तो कोई विवाद नहीं कि काफि़या स्‍वर-साम्‍य का विषय है न कि व्‍यंजन साम्‍य का। कुछ ग़ज़लों में जो व्‍यंजन-साम्‍य प्रथमदृष्‍ट्या दिखता है वह वस्‍तुत: स्‍वर-साम्‍य ही है और व्‍यंजन के साथ 'अ' के स्‍वर पर काफिया बनने के कारण व्‍यंजन-साम्‍य दिखता है।

काफि़या से जुड़े अक्षरों में एक तो होता है हर्फ़े-रवी (हिन्‍दी में व्‍यंजन) यानि काफि़या का वह व्‍यंजन जिसके साथ स्‍वर लेते हुए काफि़या निर्धारित किया जाता है। दूसरा होता है हर्फ़े-इल्‍लत यानि स्‍वर। हिन्‍दी में 'अ' 'आ', 'इ', 'ई', 'उ', 'ऊ', 'ए', 'एै', 'ओ', 'औ', 'अं', और 'अ:'  स्‍वर हैं।

सुविधा के लिये कुछ परिभाषायें निर्धारित कर लेते हैं जिससे आलेख में कोई भ्रामक स्थिति न बने। हर्फ़े-रवी को हम नाम दे देते हैं काफि़या-व्‍यंजन, काफि़या-व्‍यंजन के पूर्व आने वाले स्‍वर को हम नाम दे देते हैं पूर्व-स्‍वर और इसी प्रकार काफि़या-व्‍यंजन के पश्‍चात् आने वाले स्‍वर को हम नाम दे देते हैं पश्‍चात्-स्‍वर। एक और परिभाषा यहॉं समझना जरूरी है वह है तहलीली रदीफ़ की। तहलील उर्दू शब्‍द है जिसका अर्थ है विलीन, डूबी हुआ, घुल मिल गया और यह रदीफ़ का वह अंश होती है जो काफि़या के शब्‍द में काफि़या के बाद मौज़ूद हो। अगर काफि़या के शब्‍द में कुछ अंश ऐसा हो जो रदीफ़ का आभास दे तो वह अंश तहलीली रदीफ़ हो जाता है। जैसे 'कल का' और 'तहलका' काफि़या के स्‍थान पर आ रहे हों तो 'तहलका' का 'का' 'तहलका' शब्‍द में विलीन हो जाने के कारण तहलीली रदीफ़ हो जायेगा और 'कल का' में आने वाला 'का' रदीफ़। इस बात को अच्‍छी तरह समझ लेना जरूरी है अन्‍यथा बढ़ाये हुए अंश को लेकर आने वाली बहुत सी स्थितियॉं समझ में नहीं आयेंगी।

यहॉं यह भी समझ लेना जरूरी है कि 'अ' से 'अ:' तक के स्‍वर में 'अ्' व्‍यंजन रूप में उपस्थि‍त है। 'क', 'ख', 'ग' आदि जो भी व्‍यंजन हम देखते हैं उनमें 'अ' पश्‍चात्-स्‍वर के रूप में स्थित है। व्‍यंजन के साथ 'अ' से भिन्‍न स्‍वर आने की स्थिति में काफि़या का निर्धारण काफि़या-व्‍यंजन के साथ पश्‍चात्-स्‍वर लेते हुए अथवा स्‍वतंत्र रूप से केवल पश्‍चात्-स्‍वर पर किया जा सकता है।

उदाहरण के लिये 'नेक', 'केक' में यद्यपि 'न' और 'क' दो अलग व्‍यंजन हैं लेकिन इनपर 'ए' स्‍वर के साथ काफि़या निर्धारित होगा 'अे' स्‍वर और ऐसा करने पर किसी शेर में फेंक नहीं आ सकता क्‍यूँकि 'क' 'अ' स्‍वर का है और उसके पहले के स्‍वर 'ऐ' का ध्‍यान रखा जाना जरूरी है यह ऐं नहीं हो सकता।

चराग़ों, ऑंखों, गुलाबों, दराज़ों, आशियानों, किनारों, प्यालों में स्‍वरसाम्‍य 'ओं' पर स्‍थापित हो रहा है और ऐसे में शायर को यह अधिकार है कि वह मत्‍ले में काफि़यास्‍वरूप केवल स्‍वरसाम्‍य ले (जैसा कि उपर लिये गये गोविन्‍द गुलशन जी के मत्‍ले की ग़ज़ल में लिया गया है)। यदि मत्‍ले के शेर में 'दुकानों', 'आशियानों' काफि़या के शब्‍द लिये जाते हैं तो किसी शेर में 'मकानों' काफि़या लिया जाना ठी‍क होगा लेकिन अगर मत्‍ले में 'दुकानों' के साथ 'मकानों' ले लिया गया तो 'नों' तहलीली रदीफ़ हो जायेगा और काफि़या 'क' व्‍यंजन के साथ 'आ' के स्‍वर पर निर्धारित हो जायेगा। अब अगर मत्‍ले के शेर में 'दवाओं' और 'अदाओं' काफिया के शब्‍द ले लिये गये तो 'ओं' तहलीली रदीफ़ हो जायेगा और काफि़या 'आ' निर्धारित हो जायेगा। अर्थ यह है कि काफि़या में मूलत: दोष जैसा कुछ नहीं होता दोष होता है काफि़या निर्धारण और पालन में। जिस ईता दोष का प्रश्‍न उठाया गया है वह काफि़या के निर्धारण अथवा पालन में त्रुटि के कारण होता है।

अब एक उदाहरण लेते हैं 'नज़र' और 'क़मर' का (अभी ज़ के नुक्‍ते को छोड़ दें, वरना अनावश्‍यक रूप से एक ऐसे विषय में उतर जायेंगे जो हिन्‍दी में महत्‍व नहीं रखता है)। 'नज़र' और 'क़मर' में 'अ' के स्‍वर के साथ 'र' काफिया-व्‍यंजन है और यही काफि़या रहेगा। यानि काफि़या में ऐसे शब्‍द आ सकेंगे जो 'र' में अंत होते हों। अगर मत्‍ले के शेर की दोनों पंक्तियों में काफिया-व्‍यंजन के पूर्व समान स्‍वर आ रहे हैं तो इनका पालन सभी अश'आर में करना होगा।

काफि़या की एक मूल आवश्‍यकता और होती है कि यह पूर्ण शब्‍द नहीं हो सकता। पूर्ण शब्‍द होने पर यह काफि़या न होकर रदीफ़ हो जायेगा। ये तो चकरा देने वाली स्थिति पैदा हो रही है लेकिन ये काफि़या का नियम है और इसका पालन किये बिना ग़ज़ल नहीं कही जा सकती है। काफि़या के शब्‍द में कम से कम एक हर्फ़ ऐसा होना आवश्‍यक है जो काफि़या से पहले बचता हो। लेकिन मत्‍ले के शेर में अगर एक काफि़या स्‍वर से प्रारंभ हो रहा हो तो वह संभव है जैसे कि 'आग' और 'जाग'। यहॉं लेकिन यह भी सावधानी आवश्‍यक है कि यदि एक पंक्ति में स्‍वर से काफि़या का शब्‍द आरंभ हो रहा है तो दूसरी पंक्ति में काफि़या के स्‍थान पर ऐसा शब्‍द नहीं आना चाहिये जिसमें सन्धि विच्‍छेद से ऐसा तहलीली रदीफ़ प्राप्‍त हो रहा हो जो स्‍वर से आरंभ होने वाला काफि़या का शब्‍द हो। इसका एक उदाहरण है 'आब' और 'गुलाब' । गुलाब का सन्धि विच्‍छेद गुल्+आब मान्‍य मानते हुए देखें तो एक पंक्ति में 'आब' स्‍पष्‍ट रदीफ़ के रूप में आ जायेगा और देसरी पंक्ति में तहलीली रदीफ़़ के रूप में ऐसी स्थिति में 'आब' काफि़या का शब्‍द नहीं रह जायेगा।

काफि़या के कुछ और उदाहरण देख लेते हैं। जैसे 'करो' और 'मरो' का प्रयोग मत्‍ले में दोषरहित होगा क्‍योंकि इनमें 'रो' अलग करने पर क्रमश: 'क' और 'म' आरंभ में छूट रहे हैं लेकिन काफि़या 'र' व्‍यंजन के साथ 'ओ' स्‍वर पर कायम हो रहा है। इसी प्रकार 'झंकार' एवं 'टंकार' का प्रयोग भी सही रहेगा क्‍योंकि इनमें 'अंकार' अलग करने पर क्रमश: 'झ' और 'ट' आरंभ में छूट रहे हैं लेकिन 'कार' के पहले 'अं' का स्‍वर आ रहा है; वस्‍तुत: इनमें 'कार' तो दोनों पंक्तियों में तहलीली रदीफ़ की हैसियत रखता है।

अब लौटें गोविन्‍द गुलशन जी की ग़ज़ल के मत्‍ले पर जिसमें काफि़या 'ओं' स्‍वर पर बन रहा है। काफि़या स्‍वयं ही स्‍वर पर कायम होने के कारण बढ़ा हुआ अंश हटा देने की बात निरर्थक है। और ऐसे में जो काफि़या के शब्‍द लिये गये हैं वो सही हैं।

हॉं यह अवश्‍य है कि अगर मत्‍ले में 'किताबों' और 'जुराबों' या 'गुलाबों' ले लिया जाता तो काफि़या कायम होता 'आ' के साथ तहलीली रदीफ़ 'बों' और फिर बाकी अश'आर में दराज़ों, आशियानों, किनारों, प्यालों, रेगज़ारों का प्रयोग नहीं हो पाता।

 

काफि़या पर कैसी-कैसी बहस हो सकती हैं इसके कई उदाहरण आपके पास होंगे, जिनमें तर्क, वितर्क सभी के रूप देखने को मिल जायेंगे। अधिकॉंश को आप पुन: देखेंगे तो पायेंगे असंगत और आधारहीन कुतर्क बहुत दिये जाते हैं। इतना तो आप समझते ही होंगे कि तर्क और वितर्क व्‍यक्ति की समझ पर होते हैं और उसके ज्ञान के स्‍तर पर निर्भर रहते हैं लेकिन कुतर्क के लिये न तो समझ की जरूरत होती है और न ही ज्ञान की; बस एक हठ पर्याप्‍त रहता है। मेरा विशेष निवेदन है कि कहीं अगर आप काफि़या की बहस में उलझ जायें तो निराधार बहस में न पड़ें, तर्क-वितर्क तक सीमित रहें, कुतर्क न दें। ज्ञान तभी सार्थक है जब विनम्रता से तर्क-वितर्क रखता हो और त्रुटि होने पर सहज स्‍वीकार की स्थिति बने।

अब मैं गोविन्‍द गुलशन जी की कुछ और ग़ज़लों से मक्‍ते और प्रयोग में लाये गये काफि़या दे रहा हूँ जिससे इस विषय को समझने में सरलता रहे।

'लफ़्ज़ अगर कुछ ज़हरीले हो जाते हैं
होंठ न जाने क्यूँ नीले हो जाते हैं'
इसके साथ बतौर काफि़या बर्छीले, गीले, दर्दीले, ख़र्चीले, रेतीले, पीले उपयोग में लाये गये हैं।

 

'ग़म का दबाव दिल पे जो पड़ता नहीं कभी 
सैलाब आँसुओं का उमड़ता नहीं कभी'

इसके साथ बतौर काफि़या बिछड़ता, उखड़ता, पड़ता, उमड़ता उपयोग में लाये गये हैं।

 

सम्हल के रहिएगा ग़ुस्से में चल रही है हवा
मिज़ाज गर्म है मौसम बदल रही है हवा
इसके साथ बतौर काफि़या पिघल, मुसलसल, टहल, चल, मचल उपयोग में लाये गये हैं।


'इक चराग़ बुझता है इक चराग़ जलता है
रोज़ रात होती है,रोज़ दिन निकलता है'
इसके साथ बतौर काफि़या टहलता, निकलता, बदलता, चलता, जलता उपयोग में लाये गये हैं।

और एक ख़ास ग़ज़ल से जिसमें दो रदीफ़ और दो काफि़या प्रयोग में लाये गये हैं।

'उसकी आँखों में बस जाऊँ मैं कोई काजल थोड़ी हूँ
उसके शानों पर लहराऊँ मैं कोई आँचल थोड़ी हूँ 
इस ग़ज़ल में 'मैं कोई' तथा 'थोड़ी हूँ' के साथ बतौर काफि़या बहलाऊँ  तथा पागल, जाऊँ तथा पीतल, पाऊँ तथा पल, मचाऊँ तथा पायल, उपयोग में लाये गये हैं।

 

एक प्रश्‍न यह उठ सकता है कि मैनें गोविन्‍द गुलशन जी की ग़ज़लों से ही उदाहरण कयों लिये इसलिये मैं यह बताना आवश्‍यक समझता दूँ कि आखर कलश पर दी गयी जानकारी के अनुसार गोविन्‍द गुलशन जी को काव्य-दीक्षा गुरुवर कुँअर बेचैन /गुरु प्रवर कॄष्ण बिहारी नूर ( लख्नवी ) के सान्निध्य में प्राप्त करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ और इसका प्रभाव आप स्‍पष्‍ट रूप से उनकी ग़ज़लों में देख सकते हैं.

ग़ज़ल में काफि़या और रदीफ़ के निर्वाह को और अधिक स्‍पष्‍टता से समझने के लिये आप उनकी और ग़ज़लें www.kavitakosh.org/govindgulshan पर पढ़ सकते हैं।

अब आते हैं प्रश्‍नोत्तर पर

पिछली बार मैनें एक प्रश्‍न उठाया था कि अगर मत्‍ले के शेर में 'घुमाओ' के साथ 'जमाओ' लिया जाता तो क्‍या स्थिति बनती। इस पर मिश्रित प्रतिक्रिया प्राप्‍त हुई है। इस में वस्‍तुत: काफि़या कायम हो रहा है हर्फ़े रवी 'म' के साथ बाद में आने वाले स्‍वर 'आ' पर अत: इसमें ऐसे शब्‍द काफि़या के रूप में उपयोग में लाये जा सकते हैं जो 'माओ' पर समाप्‍त हो रहे हों। चूँकि काफिया-व्‍यंजन 'म' के साथ बाद में 'आ' का स्‍वर है हमें 'म' के पहले के स्‍वर को काफि़या दोष के संदर्भ में देखने की कोई आवश्‍यकता नहीं है। 'घुमाओ' और 'जमाओ' का 'ओ' तो वस्‍तुत: तहलीली रदीफ़ है।

अब यह तो समझ में आ सकता है कि 'मिटो' और 'पिटो' मत्‍ले में ले लेने से काफि़या 'टो' के पूर्व 'इ' के साथ बन रहा है अत: अन्‍य शेर में 'सटो' नहीं लिया जा सकेगा जबकि मत्‍ले में 'सटो' और 'मिटो' ले लिया जाता तो काफि़या सिर्फ 'टो रह जाता और अन्‍य शेर में 'मिटो' भी लिया जा सकता है।

मुझे लगता है राजीव के प्रश्‍न का उत्‍तर भी इसमें मिल गया है। मिला या नहीं?

'दुआओं' और 'राहों' में ईता दोष नहीं है अगर आप यह देखें कि दुआअ्+ओं और राह्+ओं में काफि़या ओं पर स्‍थापित हो रहा है और ये 7-अप फ़ंडा है, सीधी-सादी बात सीधी सादे तरीके से, वरना उलझे रहें बढ़े हुए अंश, बढ़े हुए अंश के व्‍याकरण भेद, मूल शब्‍द आदि में।

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Replies to This Discussion

ईसी बात पर एक और जिज्ञासा! आपने 'संस्कार' और 'टंकार' में काफिया ना होने कि बात बताई है। लेकिन जैसे कि आपने 'घुमाओ' और 'जमाओ' में काफिया 'मा' पर टिकने कि बात बताई है वेसे हि क्या उसमें 'का' पर काफिया टिकाई नहीं जा सकती? मतलब काफिया के लिए सीर्फ 'कार' को लिया जाए, जैसे कि 'माओ' पर टिकाई जा सकती है, तो क्या वह काफिया नहीं बन सकती? कृपया सुझावका अपेक्षा करता हूँ!

ऐसे में संस्‍कार, टंकार, दुत्‍कार, सत्‍कार आदि काफि़या रहेंगे जिनमें का पर काफि़या कायम रहेगा और र तहलीली रदीफ़ रहेगा। प्रचलन में एसी स्थिति को यही कहेंगे कि 'कार' काफि़या है।

तिलक जी,
मेरी जानकारी में "संस्‍कार", "टंकार", "सत्‍कार" को हम मतले में नहीं बाँध सकते
इससे सिनाद का दोष पैदा होता है जो अरूजियों के द्वारा अस्वीकार्य है

जहॉं तक अरूजियों का प्रश्‍न है मैं आप से असहमत नहीं हूँ, लेकिन कुँअर बेचैन जैसे स्‍थापित शायरों की ग़ज़लें देखें तो यह स्‍पष्‍ट होता है कि हिन्‍दी ग़ज़ल में सिनाद दोष को नकारा गया है, और हिन्‍दी में यह है भी अर्थहीन दोष। अगर व्‍यंजन पर 'अ' से भिन्‍न कोई मात्रा लेकर काफि़या बॉंधा गया है तो मुझे कोई कारण नज़र नहीं आता कि उसके पूर्व का व्‍यंजन देखा जाये। उर्दू में व्‍यंजन से बनने वाली मात्राओं के कारण अन्‍य स्थिति हो सकती है।

पक, थक, के साथ रुक, झुक लेना और पका, थका के साथ रुका, झुका लेना दो पृथक स्थितियॉं हैं। 

फिर भी उचित होगा कि इसे चर्चा से और स्‍पष्‍ट कर लिया जाये।

कुँअर बेचैन जी की किताब "ग़ज़ल का व्याकरण" में  कुँअर बेचैन जी ने  "सिनाद दोष" की विस्तृत व्याख्या की है
तथा इसे बड़ा दोष कहा है जिससे बचना बहुत जरूरी है

बाकी उन्होंने ग़ज़ल में क्या कहा है नहीं पता

काफि़या स्‍वर, व्‍यंजन अथवा स्‍वर सहित व्‍यंजन पर कायम होगा। शब्‍द का शेष अंश तहलीली रदीफ़ रहेगा।

घुमाओ के साथ जुमाओ होने पर माओ तहलीली रदीफ़ होता और छोटे उ की मात्रा काफि़या।

घुमाओ और जमाओ में घु और ज में न तो व्‍यंजन साम्‍यता है और न ही स्‍वर साम्‍यता अत: यहॉं काफि़या कायम नहीं हो सकेगा। ऐसे में माओ तहलीली रदीफ़ नहीं बचेगा। ऐसी स्थिति में मा काफि़या ठहरेगा और ओ तहलीली रदीफ़।

 

 

"घुमाओ" और "जमाओ" को किसी दशा में मतले में नहीं बाँधा जा सकता

इससे सिनाद का दोष पैदा होता है जो अरूजियों के द्वारा अस्वीकार्य है

यहॉं यह समझना जरूरी है कि काफि़या स्‍वर साम्‍यता है, व्‍यंजल साम्‍यता है या स्‍वर सहित व्‍यंजन साम्‍यता है।

इल्‍मे अरूज़ हिन्‍दी में उर्दू से आया है उर्दू और हिन्‍दी में स्‍वर भिन्‍नता को समझना जरूरी होगा।

उर्दू में स्‍वर पृथक से नहीं हैं, व्‍यंजन रूप में ही आते हैं इसलिये उर्दू के अरूज़ी हिन्‍दी की व्‍यवस्‍था को नहीं स्‍वीकारें तो उसका कारण है। हिन्‍दी में सिनाद दोष को नकारे जाने का कारण है और मेरी सोच से तो वह सही है।

हिन्दी में अरूजियों के द्वारा सिनाद दोष को नकारा नहीं गया है
ये अलग बात है कि लोग जानकारी न होने कि वजह से दोष पूर्ण ग़ज़ल कहते हैं मगर केवल इसलिए कि कोंई प्रतिष्ठित शायर है उसकी दोषपूर्ण ग़ज़ल को मानक नहीं बनाया जा सकता है

आपने पोस्ट में कई जगह सिनाद दोष की वजह से ही काफिया बंदी को दोष पूर्ण करार दिया है और कुछ जगह इसकी उपेक्षा की है, इससे लोगों में भ्रम की स्थिति बन रही है ...कल किसी सज्जन ने कमेन्ट किया तो मैंने सभी पोस्ट फिर से पढ़ी है और मुझे यह बात दिखी तो ये कमेन्ट किये

कमेन्‍ट करके कौनसा गुनाह कर दिया। कमेन्‍ट नहीं होंगे तो चर्चा कैसे होगी और चर्चा नहीं होगी तो बात साफ़ कैसे होगी। प्रस्‍तुति तो केवल एक आधार है चर्चा प्रारंभ करने की। अपेक्षा तो यही है कि जानकार लोग भी खुलकर अपनी बात सकारण व्याख्‍या के साथ रखें जिससे स्‍पष्‍टता आ सके।

:))))))))))))))))))))))))

कुमार विश्‍वास का एक संदर्भ आपने दिया था, वह देखा, वह तो ग़ज़ल है ही नहीं:

कोई दीवाना कहता है, कोई पागल समझता है !
मगर धरती की बेचैनी को बस बादल समझता है !!
मैं तुझसे दूर कैसा हूँ , तू मुझसे दूर कैसी है !
ये तेरा दिल समझता है या मेरा दिल समझता है !!
अरूज़ी अगर इसमें दोष बताते हैं तो ग़लत क्‍या है। काफि़या बॉंधा गया है 'अल' और दूसरे शेर में 'इल' हो रहा है। बॉंधे गये काफि़ये से भिन्‍न्‍ता तो स्‍पष्‍ट है यहॉं।
 

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