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नमस्कार अहबाब, मेरा सुझाव ये है तरही मुशायरे में ग़ज़लों की संख्या १ (या २) की जानी चाहिए. मैं समझता हूँ कि ग़ज़लों की संख्या बढाने के लिए ये नियम रखा गया होगा. लेकिन मेरी नज़र में ये नियम नए लिखने वालों की आदत बिगाड़ रहा है. वो २-३ दिन में ३ ग़ज़लें कह रहे हैं. ये उनके तख़य्युल के लिए ख़तरनाक है.क्योंकि वो ग़ज़ल पूरी करने के चक्कर में ऐसा वैसा कुछ भी मौज़ू ग़ज़ल में ढाल देते हैं. आखिर ग़ज़ल कहने का मामला है, तंदूर पर रोटियाँ सेंकने का नहीं. मेरे ख़याल में ग़ज़लें १ या २ ही अधिकतम होनी चाहिए....... 

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Replies to This Discussion

भाई विपुल कुमार जी बहुत महत्वपूर्ण बिंदु पर बात की है आपने. आपके  द्वारा उठाए गए सवालों पर बतौर ओबीओ प्रधान सम्पादक चंद बातें मैं भी साझा करना चाहूँगा. तरही मुशायरे में तीन गजलों की हद गजलों की तादाद बढ़ने की गरज से नहीं बल्कि तादाद को काबू रखने तथा गुणवत्ता बरकरार रखने के लिए मुक़र्रर की गई है. यही नहीं बहुत दफा एक मुशायरे से कई कई गजलों को इसी वजह से हटाया भी गया है.

अगर आप गौर से मुख्य पृष्ठ के बाईं तरफ देखें तो वहां आपको चालू माह का आयोजन केलेंडर मिलेगा, यह केलेंडर हर महीने के शुरू में प्रकाशित होता है जिसमे ओबीओ पर आयोजित होने वाले तीनो इवेंट्स की जानकारी (तिथि, विषय तथा तरही मिसरे आदि) दी जाती है. इसका अर्थ यह हुआ कि रचनाकारों को अपना कलाम कहने के लिए पूरा एक महीना मिलता है न कि २-३ दिन जैसा कि आपने फ़रमाया है. अब रही तंदूर पर रोटियां सेकने की बात, तो काम तो वो भी आसान नहीं है मेरे दोस्त. :))))

हालाकि ओबीओ पर ग़ज़ल एकमात्र प्राथमिकता नहीं है, लेकिन अपने दो साल के सफ़र के दौरान इस परिवार ने ग़ज़ल सीखने सिखाने का काम बेहद लगन और संजीदगी से किया है.. आपको जब कभी फुर्सत हो तो आप पहले तरही मुशायरे से पढना शुरू कीजियेगा, आप पाएँगे कि शुरू में काफिया रदीफ़ तक की परिभाषा से अंजान लोग आज काफी बढ़िया कलाम कह रहे हैं. वैसे, निरी तुकबंदी से शुरुयात करने वाले रचनाकार अगर १-२ शेअर भी वज्न में कहने लग पड़े हैं तो क्या ये अच्छा शगुन नहीं माना जाना चाहिए?  अगर हमको कभी भी यह महसूस हुआ कि तादाद गुणवत्ता पर भारी पड़ रही है तो हम २ तो क्या एक मुशायरे में सिर्फ १ ग़ज़ल की पाबंदी सख्ती लागू से करने से भी गुरेज़ नहीं करेंगे. 

aur jo apne tandoor ki baat hai to aapki baat sahi hai :):)

aaj ke waqt meN beshaq ghazal kahne se zyada tandoor par rotiyaN senkane meN waqt aur mehnat lagti hai :)

aur unheN dekhkar hi judge kar pana bhi aasan hota hai ki kaunsi roti achhi hogi :D 

समझाने के लिए बहुत शुक्रिया योगराज भाई. हाँ वो कलेंडर के बारे में मुझे नहीं पता था. वो मेरी कम इल्मी थी जिसके लिए मैं मुआफी का तलबगार हूँ.
लेकिन तख़य्युल की बात वही है. एक ही मिसरे पर (जिस पर पहले की कोई शायर ग़ज़ल कह चुका है) एक शायर ३ ग़ज़लें कहता है तो कुल मिलाकर कम अज़ कम २०-३० अश'आर हो जाते हैं .
एक नौ आमेज़ शायर ३० अश'आर एक मिसरे पर कहे तो बेशक़ वो नए मज़ामीन से महरूम ही रहेगा और फ़क़त काफियापैमाई में जुट जाएगा. ३० काफिये तो उस्तादों को भी मयस्सर नहीं हो पाते भाई....
ये बात बिल्कुल सही है की इससे शौरा का मश्क़ हो जायेगा. वो शायद उस बह्र को पकड़ने लग जायेंगे. लेकिन बह्र के बाद भी बहुत कुछ है जहान-ए-ग़ज़ल में. और ये काबिल-इ-फ़िक्र बात है की एक बार शायर जैसा अंदाज़ और तख़य्युल पकड़ ले, वो उसी पर चलता रहता है. तो ये ३ ग़ज़लों का नियम उन्हें बह्र की जानकारी तो दे रहा है लेकिन उनकी फ़िक्र का मेयार गिरा रहा है. और बगैर फ़िक्र के अगर वो बह्र सिख भी गए तो (बेअदबी के लिए मुआफी चाहूँगा) जहान-ए-सुख़न में ग़ज़लों के नाम पर बहर_बंद तुकबन्दियाँ इकट्ठी हो जायेंगी जिनका कोई फ़ायदा नहीं है. मेरे ख़याल से मुशायरे का मक़सद अच्छे शौरा और सुख़न को बढ़ावा देना होना चाहिए न की हर किसी को शायर बनाना इसका मक़सद हो.......

मैं समझता हूँ की ग़ज़लों कि संख्या बढाने के लिए ये नियम रखा गया होगा.

जी नहीं. बात मात्र इतनी नहीं थी/है.  गजल पर हाथ आजमाने वालों और लिखने वालों की लेखन-शक्ति और उनके लेखन-प्रवाह को मंच मिले इसका ध्यान अधिक था/है.  इस मंच का तरही मुशायरा शुरू से स्थापित ग़ज़लकारों की भागीदारी के लिये कम जाना जाता रहा है.  नये या उभरते हुए शायरों को उचित माहौल और मंच मिले इसके प्रति आग्रह सर्वाधिक रहा है.

लेकिन मेरी नज़र में ये नियम नए लिखने वालों की आदत बिगाड़ रहा है. वो २-३ दिन में ३ ग़ज़लें कह रहे हैं.

ऐसा अक्सर कम ही होता है/ हुआ है.  अक्सर कहने वाले तीन दिनों में तीन ग़ज़ल कहते हैं. दर रोज़ एक ग़ज़ल.  लेकिन ऐसा भी सभी शायर नहीं करते.  बल्कि ऐसा वे शायर अधिक करते हैं जो मंच पर या तो नये हैं या अधिक से अधिक अभ्यास करने का माहौल चाहते हैं. अधिकांश शायर एक ही ग़ज़ल कहते हैं या बहुत हुआ तो दो.  लेकिन अव्वल हमें यह जानना ज्यादा जरूरी है कि इस तरही मुशायरे का उद्येश्य क्या है. 

इस मंच पर का हर आयोजन ’सीखने-सिखाने’ की प्रक्रिया को बढ़ाने का माहौल उपलब्ध कराता है. माहौल को समरस बनाने का सबसे सरस तरीका है नवसिखिये और पुराने लिखने/कहने वालों को एक मंच पर रखा जाय. जिन्हें रास आता है वे पुराने रुक कर नयों की हौसलाअफ़ज़ाई करते हैं. जिन पुरानों और थोड़ा अधिक जानने वालों को खुद पर गुमान होता है वे या तो चले जाते हैं और अप्रभावी हो जाते हैं या फिर अपना ग़ुमान भूल कर नयों को राह बताने का ज़िम्मा अपने सर ले लेते हैं.

आखिर ग़ज़ल कहने का मामला है, तंदूर पर रोटियाँ सेंकने का नहीं.

एकदम दुरुस्त फ़रमाया आपने, विपुल कुमार जी. इस के प्रति हम सभी संवेदनशील हैं. आप की उपस्थिति बन गयी है, आप भी तन्दूरी बनाने वालों को समझाने में हमारा सहयोग करें. यह जरूर है कि ग़ज़ल संवेदना/ प्रेम/ तबीयत का कायदा है, खाला के घर की बेलगाम रवायत नहीं.

मेरे ख़याल में ग़ज़लें १ या २ ही अधिकतम होनी चाहिए.

प्रधान सम्पादक तक आपकी बात पहुँची समझिये.  इस मंच पर नियमों में बदलाव किसी एक का निर्णय नहीं होता. प्रधान सम्पादक ने अपने लिये प्रबन्धन समिति बना रखी है. इस मंच के आयोजनों के संचालकों का कहा हुआ भी निर्णय में अपरिमित भूमिका निभाता है.

विश्वास है, मेरे कहे से आप मुत्मईन हो पाये होंगे. संवाद बना रहे .. .

सादर

 

शुक्रिया सौरभ भाई. आपने बहुत अच्छे से बात को समझा और अपनी बात रखी. हाँ, अगर ये मंच नए लोगों को बह्र और तेच्निकलितिएस सिखाने के लिए बनाया गया है तो ये बात सही है की ग़ज़लें ३ कम अज़ कम रखी जानी चाहिए ता कि नौ आमेज़ शौरा बह्र को अच्छे से पकड़ सकें. मेरा ख़याल इस बात को लेकर था की उन्हें काफ़िया पैमाई के अलावा नए और ख़ास मज़ामीं की ज़रुरत को भी समझाया जाए. वरना वो बह्र सीखते ही ख़ुद को "शायर" मानने लगेंगे और ये आज के वक़्त में ग़ज़ल की दुनिया के लिए बहुत विडम्बना भरी बातें हैं की आज बहुत से लोगों के लिए बह्र ही एक शायर के लिए ज़रूरी चीज़ है.
ख़ैर, मैं आपकी बात समझ सकता हूँ. इस मस'अले में हिस्सा लेने के लिए शुक्रिया........

तैनूं साध नाल की तैनू चोर नाल की तूं तां अपनी नबेड किसे होर नाल की 

bhai maiN apni hi soch raha tha. kal ko jab maiN koii shayri ki achhi kitaab lene jaunga to mujhe hi kisi dukaan pe inhi shayroN ke majmue milenge aur maiN na jaane kya kya ghar utha laaunga ghazal ke naam par.....

Khair, shayad aap sahi kahte haiN. allah sab likhne waaloN ko quvvat bakhshe........... after all, its democracy :)):):)

विपुलकुमार जी,  ककहरा और अल्लिफ़बेपे करने वाले ही आगे उस्ताद हो जाया करते हैं .. .

वक़्त सबको साधता है.

jii beshaq alifbepe aur k kh g karne wale hi ustad hote haiN. aap meri baat ko otherwise bilkul na leN. maiN kisi ko kam nahiN aank raha huN. maiN faqat takhayyul ko tawajjo dene ki baat kar raha tha. koii beadabi huii ho to muafi bhai........

विपुल कुमार जी, आप बहुत गहरे और ऊँचे खयालों के व्यक्ति हैं .. . आप मेरे कहे को समझ रहे हैं यह मेरे लिये भी गौरव की बात है. मैं अन्यथा नहीं ले रहा हूँ.

साहित्य सेवा की बात हो तो हम किसी हद तक कुछ भी स्वीकार कर लेते हैं.  समाज को ज़िन्दा और मायनेदार साहित्य ही रखता है अन्य कुछ नहीं.  इसी ओर मेरा इशारा था.

आपने समझा मेरी बात रह गयी.

सधन्यवाद

|| मेरा ख़याल इस बात को लेकर था की उन्हें काफ़िया पैमाई के अलावा नए और ख़ास मज़ामीं की ज़रुरत को भी समझाया जाए ||

हुजूर गुस्ताखी मुआफ , जब यह बात किसी को समझ आ जाती है तो मुशायरे में उसकी ग़ज़लों की संख्या खुद कम हो जाती है क्योकि तब शायर अधिक ग़ज़ल लिखता भी है तो उसको लगता है कि फन्नी एतबार से ग़ज़ल में कुछ कमी है और वो पोस्ट नहीं करता

और यहाँ यह पाबंदी तो है नहीं कि तरही मुशायरा में शिरकत करना है तो कम -अज- कम तीन ग़ज़ल कहना आवश्यक है अपितु अधिकतम तीन का नियम है और यह भी जरूरी नहीं कि कोई तीन ग़ज़ल लिखे तो वो नया हो, अनाडी हो और वो हल्की ग़ज़ल ही लिख सके...
तीनो ग़ज़ल उम्दा भी हो सकती है
है न ?

jii :))))

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