For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

"माँ! शब्द दो! अर्थ दो!” ये तीन पंक्तियाँ मिलकर एक छोटी सी कविता रच देती हैं। ये कविता उस यात्रा की शुरुआत है जिसका प्रारंभ घने कुहरे से होता है। हमारा अस्तित्व भी माँ से ही शुरू होता है। हमारे जीवन को पहला शब्द और पहला अर्थ माँ ही देती है। इसके बाद होती है जीवन-यात्रा जो अज्ञान के कुहरे से शुरू होती है।

 

बच्चे हर चीज को उसके स्वाद से पहचानने की कोशिश करते हैं। तब माँ सिखाती है कि हर चीज का स्वाद जुबान से नहीं लिया जा सकता।  दुनिया को जानने समझने के लिए आपको हर इंद्रिय का प्रयोग करना पड़ता है और किस वस्तु को किस इंद्रिय से महसूस किया जा सकता है यह माँ ही सिखाती है। माँ ज्ञान का सूरज भी है और आनंद की धूप भी। इस तरह ‘कोहरा सूरज धूप’ नामक कविता संग्रह की यात्रा शुरू होती है जो बृजेश ‘नीरज’ जी के कल्पनालोक में ले जाती है।

 

अद्भुत बिम्बो से भरी सुबह हो रही है। यात्रा के प्रारंभ में ही कुछ द्वीप हैं जिनसे सटकर भगीरथी की धारा ठिठकी हुई है जिसकी स्याह लहरों में घुटकर रोशनी दम तोड़ देती है। निगाह नीले आसमान की तरफ जाती है और मन में सदियों पुराना प्रश्न सिर उठाता है। क्या होगा अंत के बाद?  सामने मोमबत्तियों को घेरे हुए भीड़ दिखाई पड़ती है पर वो भी रोशनी को दम तोड़ने से नहीं बचा पाती।

 

आगे बढ़ने पर कुहरा छँट जाता है और सूरज चमकने लगता है। सूखे खेत, कराहती नदी और बढ़ते बंजर दिखाई पड़ते हैं। सड़क का तारकोल पिघलने लगता है। यात्रा करते समय काग़ज़ पर सीधी लकीर खींचने की सारी कोशिशें बेकार साबित होती हैं। ‘कोहरा सूरज धूप’ की यात्रा जीवन की यात्रा भी है। जहाँ लगातार कोशिशें करने के बावजूद भी सीदा सादा बनकर नहीं जिया जा सकता। इंसान करे तो क्या करे।

 

आगे दिखाई पड़ती हैं जमीन के शरीर पर खिंची ढेरों लकीरें जिन्हें लोग पगडंडियाँ कहते हैं।    पगड़ंडियाँ तब बनती हैं जब इंसान एक ही रास्ते से बार बार गुज़रता है। पर क्यों गुज़रता है इंसान एक ही रास्ते से बार बार? क्योंकि उस रास्ते के अंत में प्रेम उसकी राह देख रहा होता है। प्रेम, जिसके बिना इंसान का जीवित रहना निरर्थक है। इसलिए नये रास्तों पर चलने की चाहत को भीतर दबाये वो बार बार उन्हीं रास्तों से होकर गुज़रता है। कभी भटक गया तो भी लौट कर वापस उन्हीं पगडंडियों पर आता है।

 

अचानक लगता है कि इस रास्ते में आकाश, हवा, पानी, धूप, धूल, सितारा, सूरज, चाँद, ग्रह आकाशगंगा सबकुछ कवि की कल्पना का विस्तार मात्र है। कवि भी उन्हीं मूलभूत कणों और गुणों से बना है जिनसे सारा ब्रह्मांड बना है। अंतर मात्र इन कणों की संख्या का है। अचानक एक प्यार भरा स्पर्श कवि को कल्पनालोक से निकाल कर ला पटकता है जीवन के कठोर धरातल पर और कहता है कि उठो अभी कल की रोटी का जुगाड़ करना है तुम्हें। कवि को ध्यान आता है कि इन पगडंडियों में से कुछ उदास, खामोश पगडंडियाँ उन घरों तक जाती हैं जो स्मृतियों के बोझ तले ढहने लगे हैं। इन पर अब कोई नहीं चलता इसलिए खेत धीरे धीरे इनपर अपना कब्ज़ा जमाते जा रहे हैं और ये हरे रंग की एक दुबली पतली लकीर के जैसी दिखने लगी हैं।     

 

आगे बढ़ने पर गर्मी अचानक बढ़ जाती है और इस प्रचंड गर्मी में सिर पर ईंटे ढोता एक आदमी दिखाई पड़ता है जिसकी आँतों में भूख का तापमान वातावरण के तापमान से अधिक है। गर्मी हमेशा उच्च तापमान से निम्न तापमान की तरफ बहती है इसीलिए गरीब आदमी प्रचंड गर्मी में भी जिन्दा रह पाता है। कवि अपने कंधों पर लदे तीन शब्द आदमी, भूख, पेट के बदले में तीन नए शब्द माँगता है मगर पूरा संसार मिलकर भी उसे तीन नए शब्द नहीं दे पाता। ये शब्द कवि के कंधों पर लदे हुए दिखते जरूर हैं मगर सच तो यह है कि धूप की गर्मी ने ये शब्द कवि की आत्मा के साथ वेल्ड कर दिये हैं। यहाँ से यात्री को यकीन हो जाता है कि वो सचमुच किसी कवि के कल्पनालोक की यात्रा कर रहा है किसी मायानगरी की नहीं।

 

आगे चलने पर मिलती है जमीन की तलाश में भटकती एक टूटी शाख जो लाल बत्ती पर खड़ी होकर अपनी फटी कमीज से गाड़ी पोंछ रही है। कवि कहता है कि तुम्हारी जमीन दिल्ली में एक गोल गुम्बद के नीचे कैद है। पहुँच सकोगी वहाँ तक? यह सुनते ही सूरज बड़ी तेजी से चमकने लगता है, बारिश होने लगती है, बादल फटता है। सबकुछ पिघलते अँधेरे में गुम हो जाता है। कवि लालटेन लिखना चाहता है पर अँधेरे में कैसे लिखे?

 

आगे बढ़ने पर मिलते हैं प्रेम और जीवन जिनके सामने जाने के लिए कवि ढूँढने लगता है अपना चेहरा। वो तारे तोड़ लाना चाहता है पर चुपचाप खाली बाल्टी को बूँद बूँद भरते हुए देखने के अलावा कुछ नहीं कर पाता। अचानक यादों की किताब खुल जाती है और कवि को याद आता है कि प्रेम की बारिश के बगैर बहुत से सपने सूख गये हैं। आकाश और धरती के बीच कवि का अहंकार अकेला खड़ा है। कवि उसे दूर से नमस्कार कर आगे चल पड़ता है।

 

आगे मिलता है कंक्रीट का जंगल जहाँ दो पल सुकून से बैठने के लिए कवि जगह की तलाश में भटकता है। कवि को ढेर सारे मकान मिलते हैं अपने अपने नंबरों को सीने से चिपकाए और बशीर बद्र का ये शे’र याद आता है।

घरों पे नाम थे नामों के साथ ओहदे थे

बहुत तलाश किया कोई आदमी न मिला

 

अचानक कवि को दिख जाता है उसका प्रेम और कवि कह उठता है कि तुम्हारा आना एक इत्तेफ़ाक हो सकता है लेकिन तुम्हारा होना अब मेरी आवश्यकता है। कवि को दिखाई देती हैं बंद खिड़कियाँ जिनपर हवा बार बार दस्तक दे रही है। कवि के कल्पनालोक में भी रात होती है और हवा डर से काँपने लगती है लेकिन जल्द ही रोशनी की पहली किरण भी दिखाई देने लगती है। यहाँ कवि को अहसास होता है कि समय उससे बहुत आगे निकल चुका है। समय कल्पना की गति से भी तेज गति से भाग रहा है।

 

आगे बढ़ने पर कुहरा एक बार फिर घना हो जाता है पर कवि को यकीन है कि ये एक बार छँटा है तो दुबारा भी छँटेगा और वो भावों की लालटेन लिये आगे बढ़ता रहता है। कुहरे में रास्ता तलाशना मुश्किल साबित हो रहा है कवि बार बार आगे बढ़ता है मगर रास्ता बंद पाकर वापस लौट आता है। कवि के मन में कुहरे की जेल से आज़ाद होने की इच्छा बलवती होने लगती है और वो जन-गण-मन गाने लगता है। अचानक कुहरा छँट जाता है और दिखाई पड़ने लगती है बरसात के अभाव में बंजर होती जमीन।

 

तभी पास में ही कहीं आँधी चलने लगती है और कवि की आँखों में धूल के कण चुभने लगते हैं। कवि आँखें मलने लगता है और उसे दिखाई पड़ते हैं प्रतिपल रंग बदलते हुए अक्षर। उसकी आँखों से स्याही की बूँद निकलकर क्षितिज की ओर चल पड़ती है। पता नहीं रंग बदलते हुए अक्षरों से निर्मित होने के कारण शब्द खामोश हैं या फिर उन्होंने दो मिनट का मौन धारण कर लिया है क्योंकि शाहजहाँ ने उनके पिता का सर (कवि के हाथ) कटवा दिया है।

 

आगे चलने पर दिखाई पड़ता है कवि का गाँव जिसे देखते ही कवि रेज़ा रेज़ा होकर अपने गाँव की मिट्टी में बिखर जाता है। मिट्टी उसे फिर से नया और तरोताजा कर देती है। कवि सूखी भूरी घास की चुभन महसूस करता हुआ फिर से उठ खड़ा होता है और उसे याद आता है कि कविता बैसाखियों पर नहीं चलती। यहीं कवि लिखता है मित्र के नाम एक कविता और निश्चय करता है कि ढूँढनी ही होगी कौंधते अंधकार में प्रकाश की किरण जो उसे मिल जाती है किसी के मुस्कुराते चेहरे में।

 

सामने से अचानक एक हाथी डर से भागता हुआ निकल जाता है। उसे बचाने हैं अपने दाँत। लेकिन वो उस सड़क पर भागता है जो संसद को जाती है और सब जानते हैं कि आगे जाकर यह सड़क बंद हो जाती है।

 

आगे कवि को मिलता है सजा धजा चमचमाता हुआ बाजार जिसमें कवि अंधेरे के कण ढूढने का प्रयास करता है। कवि देखता है बाजार में फूल बास मारते हुए झड़ रहे हैं क्योंकि इनमें संवेदना की खुशबू नहीं है। कवि शहर के बड़े चौराहे की बड़ी दीवार के पास पहुँचता है और उस पर लोकतंत्र लिखने की कोशिश करता है। जैसे ही वह ‘ल’ लिखता है दीवार फ़ौरन सफ़ेद रंग से पोत दी जाती है और कवि को गायब कर दिया जाता है।

 

कवि को गायब कर देने से कवि मिटता नहीं बल्कि और विराट होकर लौटता है। सोये हुए कुम्हार को जगाता है और उससे कहता है कि उठो! गढ़ो! यह सोने का समय नहीं है। कुम्हार को जगाकर कवि निकल पड़ता है सत्य की खोज में।

 

इतनी दूर तक आते आते कवि का थक जाना स्वाभिवक है। कवि की थकान देखकर उसका मित्र कहता है कि नीरज, बड़े दिनों बाद आये। आओ साथ साथ बैठकर लइया, गुड़, चना और हरी मिर्च की चटनी खाएँ। मित्र का स्नेह कवि को एक बार फिर तरोताज़ा कर देता है और तब ये परम सत्य कवि की समझ में आता है। तन माटी से ऊपजा, तन माटी मिल जाय।

 

आगे दिखाई पड़ता है एक घर जिसके आँगन में बैठा बच्चा रो रहा है क्योंकि उसके हिस्से की रोटी कोई चुराकर खा गया है। पीपल केवल अफ़सोस व्यक्त करके चुप हो गया है। इसी गली के कोने पर बने मकान में एक बुढ़िया की देहरी का दिया आज भी टिमटिमा रहा है किसी अनजानी आशा में। कवि भटकता है सतर में अर्थ की तलाश करता हुआ किंतु अचानक निहारता रह जाता है मुँह बिराते अक्षरों को।

 

अंत में कवि पहुँचता है अपने आराध्य की शरण में। उनको बताता है कि धन-शक्ति के मद में चूर रावण के सिर बढ़ते ही जा रहे हैं। मर्यादापुरुषोत्तम तो जग में बहुत हैं मगर शबरी के बेर खाने वाले, केवट को गले लगाने वाले, बंदरों की सहायता करने वाले, शरणागत राक्षस का भी उद्धार करने वाले राम कहीं गुम हो गये हैं। कवि पुकार उठता है, "राम! तुम कहाँ हो?”

 

माँ से शुरू हुई यात्रा राम तक पहुँचती है। दीन, दुखियों, निर्बलों के राम तक। पर ये यात्रा का केवल एक अस्थायी पड़ाव है। इतनी दूर तक आने वाले थका नहीं करते। वो पड़ावों पर जीवन नहीं बिताते। वो तो चलते रहते हैं, चलते रहते हैं जब तक साँस चलती है। यात्रा आगे भी जारी रहेगी इस उम्मीद के साथ कोहरे से धूप तक का सफर यहीं समाप्त हो जाता है।

---------------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

Views: 598

Replies to This Discussion

आदरणीय धर्मेन्द्र जी, आपका बहुत-बहुत आभार! मैं अभिभूत हूँ, निशब्द हूँ! पुनः हार्दिक आभार!

RSS

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' posted a blog post

शेष रखने कुटी हम तुले रात भर -लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

212/212/212/212 **** केश जब तब घटा के खुले रात भर ठोस पत्थर  हुए   बुलबुले  रात भर।। * देख…See More
6 hours ago
अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 170 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय चेतन भाईजी,  प्रस्तुति के लिए हार्दि बधाई । लेकिन मात्रा और शिल्पगत त्रुटियाँ प्रवाह…"
14 hours ago
अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 170 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय सौरभ भाईजी, समय देने के बाद भी एक त्रुटि हो ही गई।  सच तो ये है कि मेरी नजर इस पर पड़ी…"
15 hours ago
अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 170 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय लक्ष्मण भाईजी, इस प्रस्तुति को समय देने और प्रशंसा के लिए हार्दिक dhanyavaad| "
15 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 170 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय अखिलेश भाईजी, आपने इस प्रस्तुति को वास्तव में आवश्यक समय दिया है. हार्दिक बधाइयाँ स्वीकार…"
17 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 170 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय चेतन प्रकाश जी आपकी प्रस्तुति के लिए हार्दिक धन्यवाद. वैसे आपका गीत भावों से समृद्ध है.…"
17 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 170 in the group चित्र से काव्य तक
"आ. भाई अखिलेश जी, सादर अभिवादन। प्रदत्त चित्र को साकार करते सुंदर छंद हुए हैं। हार्दिक बधाई।"
yesterday
अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 170 in the group चित्र से काव्य तक
"सार छंद +++++++++ धोखेबाज पड़ोसी अपना, राम राम तो कहता।           …"
yesterday
Chetan Prakash replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 170 in the group चित्र से काव्य तक
"भारती का लाड़ला है वो भारत रखवाला है ! उत्तुंग हिमालय सा ऊँचा,  उड़ता ध्वज तिरंगा  वीर…"
yesterday
Aazi Tamaam commented on Aazi Tamaam's blog post ग़ज़ल: चार पहर कट जाएँ अगर जो मुश्किल के
"शुक्रिया आदरणीय चेतन जी इस हौसला अफ़ज़ाई के लिए तीसरे का सानी स्पष्ट करने की कोशिश जारी है ताज में…"
Friday
Chetan Prakash commented on सुरेश कुमार 'कल्याण''s blog post अस्थिपिंजर (लघुकविता)
"संवेदनाहीन और क्रूरता का बखान भी कविता हो सकती है, पहली बार जाना !  औचित्य काव्य  / कविता…"
Friday
Chetan Prakash commented on Aazi Tamaam's blog post ग़ज़ल: चार पहर कट जाएँ अगर जो मुश्किल के
"अच्छी ग़ज़ल हुई, भाई  आज़ी तमाम! लेकिन तीसरे शे'र के सानी का भाव  स्पष्ट  नहीं…"
Thursday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service