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मिल जाय मुझको बस

खाना, कपड़ा-लत्ता

बड़ी बेकार पढ़ाई यारों

पढ़ने-लिखने में मन नहीं लगता

काश न होते विद्यालय

होते न अध्यापक

जो मन आता वो करते हम

न होता पर डे का झंझट

खाते-पीते मौज उड़ाते

पापा संग पिक्चर को जाते

कॉमिक पढ़ते, क्रिकेट खेलते

छोटू के हम कान पकड़ते

न होतीं इतनी किताबें

न होता एच.डब्ल्यू.

खूब खेलते, खूब घूमते

क्यों डब्लू, क्यों बबलू

पर ये तो मेरा सपना था

जब मम्मी ने मुझे जगाया

कहा उठो भी राजू बेटा

पढ़ने का टाइम आया !

 

-(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Replies to This Discussion

बहुत ही सुन्दर! हार्दिक बधाई आपको!

राहुल जी

बड़ी सुन्दर बाल कविता है i

स्वप्न के बहाने आपने बच्चो

का दिल ही खोल दिया i 

आपको बहुत बहुत बधाई i

सच! आपकी कविता पढ़कर बचपन याद आगया, पढने के लिए बे-मन से उठना पड़ता था, ऐसा लगता था रोज रविवार क्यूँ नहीं होता, यह सोमवार इतनी जल्दी क्यों आ जाता है, बस खेल ही खेल दिखता हमेशा,

इस सुंदर कविता पर बधाई स्वीकारें आदरणीय राहुलजी

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