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ओ बी ओ लखनऊ चैप्टर द्वारा आयोजित काव्य गोष्ठी (८ जून-१३) : एक रिपोर्ट

8 जून, 2013

 

साहित्य संवाद का एक अनोखा माध्यम है जहां रचनाकार के मन के भाव, विचार सीधे पाठक के हृदय तक पहुंचते हैं। इस संप्रेषण में जो रचना जितनी सफल होती है उतनी ही वह अच्छी मानी जाती है। जो नामचीन रचनाकार हैं उनकी कला ही यह है कि उनकी रचना के माध्यम से उनके भाव सीधे पाठक के दिल में उतरते चले जाते हैं। यह बात बहुत से नए रचनाकार नहीं समझते। उनके लिए कुछ भी उथला छिछला लिखना ही साहित्य है। ऐसे बहुत से लोग आत्ममुग्ध से श्लाघाओं के बियाबान में भटक रहे हैं। उन्हें रास्ता दिखाने की कोई कोशिश रास नहीं आती है। वे यही मानते हैं कि वे भटके नहीं हैं, वरन टहल रहे हैं। परन्तु हमें एक बात समझनी होगी कि पाठक से बड़ा साहित्यकार कोई नहीं होता। जो अपनी बात को जितनी सहजता, सरलता और सुंदरता से पाठक तक पहुंचाने में सफल होता है उतना ही पाठक उसे मान देता है। यह बात काव्य गोष्ठियों से भी पुष्ट होती है।


अभी तक काव्य गोष्ठियों में कवियों को सुनता ही रहा लेकिन ओबीओ के माध्यम से जब इनमें प्रतिभाग का अवसर प्राप्त हुआ तो भाव संप्रेषण की ताकत का एहसास और भी गहनता से हुआ। कागज पर लिखते समय अपने भावों को यूं उकेरना कि वे पाठक तक ज्यों का त्यों पहुंच सकें जितना कठिन है उतना ही कठिन है पाठ करते समय उन्हें श्रोता तक पहुंचाना। अंतर्जाल पर वाहवाहियों की बाढ़ में डूबती उतराती बहुत सी छिछली रचनाओं को काव्य गोष्ठियों में धाराशायी होते देखा है। श्रोता भाव संप्रेषण में असफल रचनाओं को कभी पसंद नहीं करता। इन काव्य गोष्ठियों के माध्यम से एक बात और पुष्ट हुई कि छंदबद्ध रचनायें श्रोता को जितना आकर्षित करती हैं उतनी छंदमुक्त नहीं। छंदमुक्त पसंद तभी की जाती हैं जब वे भाव की गहनता और प्रवाह से युक्त हों।

     पिछली 18 मई को जब ओबीओ के संस्थापक आदरणीय श्री गणेश बागी जी लखनऊ आये थे तो वे यहां एक दीप जला गए थे लखनऊ चैप्टर के रूप में। उस दिए को प्रज्ज्वलित रखना हमारा दायित्व था। उस दायित्व के निर्वहन और लखनऊ की सरजमीं पर साहित्य की धारा के अबाध प्रवाह को बनाए रखने के लिए हमने 8 जून, 2013 को एक काव्य गोष्ठी के आयोजन का निश्चय किया।

     अब फिर शुरू हुई जगह की तलाश जहां इस काव्य गोष्ठी का आयोजन किया जा सके। मैंने एक संस्कृत विद्यालय में यह आयोजन कराने का प्रयास किया लेकिन उस विद्यालय में परीक्षा संबंधी कुछ कार्य के चलते रहने के कारण वहां यह आयोजन किया जाना संभव न हो सका। आदरणीय प्रदीप जी अपने खराब स्वास्थ के बावजूद शुरू से इन आयोजनों में अति उत्साह के साथ सक्रिय प्रतिभाग व हम लोगों का मार्गदर्शन करते आ रहे हैं। उन्होंने रायबरेली रोड पर पीजीआई के निकट एक विद्यालय में आयोजन कराने का प्रस्ताव रखा ।

     केवल भाई जो हमारी टीम के एक बहुत ही सक्रिय और दक्ष व्यक्ति हैं, उनकी लगातार लोगों से सम्पर्क करते रहने और संवाद स्थापित करने की प्रवृत्ति ने एक बेहतर स्थल आयोजन हेतु उपलब्ध करा दिया। एक दिन केवल भाई, आदरणीय आदित्य चतुर्वेदी जी के साथ संपर्क करने के लिए ओबीओ के सक्रिय सदस्य दंपत्ति आदरणीय शर्देन्दु जी और आदरणीया कुंती जी से मिलने और आयोजन की सूचना देने हेतु उनके निवास पर गए। चर्चा के दौरान ही आदरणीया कुंती जी ने यह आयोजन उनके निवास पर ही करवाने का प्रस्ताव रखा। जिसे हम लोगों ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। आयोजन की तिथि पहले ही निर्धारित की जा चुकी थी, 8 जून। द्वितीय शनिवार होने के कारण अधिकांश लोगों ने इस तिथि पर ही आयोजन करवाना पसंद किया था।

     आयोजन के लिए कुछ विशेष तैयारी करनी नहीं थी क्योंकि सारी जिम्मेदारी आदरणीय शर्देन्दु जी ने स्वयं के कंधों पर यह कहते हुए ले ली थी कि आयोजन उनके निवास पर हो रहा है। यह उनकी सदाशयता थी। हम लोगों के पास काम बचा लोगों से संपर्क करने और आयोजन की सूचना देने का। नियत तिथि को 4 बजे का समय निर्धारित किया गया। हम लोगों ने यह तय किया कि हम लोग कुछ पहले यानी 3.30 बजे तक आयोजन स्थल पर पहुंच जाएंगे जिससे कि शर्देन्दु जी को तैयारी में कुछ सहायता की जा सके।

     नियत तिथि को आदरणीय प्रदीप जी, केवल जी तथा आदित्य जी पूर्व निर्धारित समय के अनुसार आयोजन स्थल पर पहुंच गए। मेरा स्वास्थ्य खराब हो जाने के कारण मुझे विलंब हो गया। मैं लगभग 4.20 पर आयोजन स्थल पहुंचा। वहां देखा तो लगभग सभी लोग पहुंच चुके थे और मेरी प्रतीक्षा में थे। मुझे बहुत पश्चाताप हुआ कि लोगों को मेरे कारण इंतजार करना पड़ा।

     आदरणीय शर्देन्दु जी, डा0 आशुतोष बाजपेयी जी, केवल भाई, श्री प्रदीप सिंह कुशवाहा जी, आदरणीया कुंती जी आज के इस आयोजन में उपस्थित थे। श्रीमती अन्नपूर्णा जी व्रत पूजन की व्यस्तता के कारण इस बार के आयोजन में प्रतिभाग करने कानपुर से न आ सकीं। हालांकि, दो नए व्यक्तियों श्री नीरज मिश्र तथा श्री प्रदीप शुक्ल ने भी इस आयोजन में सम्मिलित होने की सूचना दी थी परन्तु उनकी उपस्थिति कुछ अति आवश्यक व्यस्तताओं के चलते संभव न हो सकी। इस बार की उपलब्धि थी दो नए रचनाकारों श्री अनिल कुमार चैधरी ‘समीर’ तथा श्री अनिल कुमार वर्मा ‘अनाड़ी’ की उपस्थिति। लखनऊ में अपनी रचनाओं के दम पर पहचान बना चुके श्री नन्दलाल शर्मा ‘चंचल’ जी इस आयोजन में अपनी व्यस्तताओं के चलते कुछ विलंब से उपस्थित हो सके।

     इस कार्यक्रम के संचालन की जिम्मेदारी श्री आदित्य चतुर्वेदी जी ने संभाली। कार्यक्रम का अध्यक्ष श्री प्रदीप सिंह कुशवाहा जी को तथा मुख्य अतिथि श्रीमती कुंती मुखर्जी जी को चुना गया।

     कार्यक्रम की शुरूआत श्री प्रदीप जी द्वारा मां दुर्गा की प्रतिमा के समक्ष धूपदान से हुई। पिछले आयोजन की तरह इस बार भी डा0 आशुतोष जी की उपस्थित का लाभ उठाते हुए प्रभु की प्रार्थना हेतु उनसे आग्रह किया गया। डा0 आशुतोष बाजपेयी जी ने अपने मधुर कंठ से प्रभु के चरणों में समर्पित अपने तीन छंद प्रस्तुत किए।

//दौड़ आओ अम्ब व्यग्र हो रहा अतीव चित्त अंक में उठाओ आज वक्ष से लगाओ माँ

आ रहे नहीं विचार भी नवीन बुद्धि में कि शब्द रूप धार लेखनी में बैठ जाओ माँ

दो शिवत्व शक्ति दास को करो कृतार्थ नित्य लेखनी चले अभी विपंचिका बजाओ माँ

हस्तबद्ध प्रार्थना सुनो तुरन्त दास हेतु दिव्य दो प्रसाद धार काव्य की बहाओ माँ//

 

//जागृत भारत को कर दूँ मुझमे पुरुषार्थ अपार भरो माँ

मन्त्र महार्णव मन्त्र महोदधि विस्मृत हैं यह ध्यान धरो माँ

छन्द जपे मम मानव तो तुम मन्त्र समान प्रभाव करो माँ

दिव्य अलौकिक बात कहूँ मम लेखन को इस भांति वरो माँ//

अब श्री आदित्य चतुर्वेदी जी ने अपनी विशिष्ट शैली में काव्य गोष्ठी की शुरूआत करते हुए लखनऊ के हास्य व्यंग्य के 

 

स्थापित कवि श्री अनिल कुमार वर्मा ‘अनाड़ी’
जी को काव्य पाठ हेतु आमंत्रित किया। अनाड़ी जी ने अपनी विशिष्ट हास्य व्यंग्य की शैली में अपनी एक प्रकाशित पुस्तक से अपनी एक रचना सुनायी जिसमें एक आधुनिक पति की व्यथा को हास्य के माध्यम से उन्होंने प्रस्तुत किया।

//उठो प्रिये, अब आंखें खोलो

बेड टी लाया हूं, तुम पी लो।//

इसके बाद मंच संचालक ने मेरा नाम पुकारा अपनी रचनायें प्रस्तुत करने हेतु। मेरे लिए लिखने से अधिक कविता पाठ अधिक दुष्कर कार्य है। इन आयोजनों के माध्यम से औरों को सुनते हुए यह कला भी आ ही जाएगी मुझे। पिछले बार के आयोजन से सबक लेते हुए इस बार मैं अतुकान्त कविता सुनाने से बचा। सबसे पहले मैंने अपने कुछ शेर सुनाए।

//मेरी ख्वाहिशों का मंजर किसी शाम ढल न जाए

ये शहर की भीड़ मुझको कभी यूं निगल न जाए//

इसके बाद मैंने अपने नवगीत प्रस्तुत किए। हालांकि अभी नवगीत भी गा कर नहीं सुना सका।

//चांद सितारे चुप से हैं

रात घनेरी छाई है//

दूसरा नवगीत जो मैंने सुनाया उसका एक बंद कुछ इस तरह था

//चिड़ियों ने भी पंख समेटे

 

हवा हुई अनजानी सी

नदिया में बेचैन सी लहरें

मछली कुछ अकुलानी सी

तूफानों के इस मौसम में

दिया द्वार पर जूझ रहा//

इसके बाद श्री अनिल कुमार चौधरी ‘समीर’ जी को कविता पाठ हेतु आमंत्रित किया गया। समीर जी के साथ उनकी पत्नी भी इस कार्यक्रम में श्रोता के रूप में उपस्थित थीं जो कि हम लोगों के लिए हर्ष का विषय रहा। श्री समीर जी ने अपनी पहली कविता के माध्यम से साहित्य के नव हस्ताक्षरों को उपयुक्त मंच उपलब्ध न हो पाने का दर्द सबके समक्ष रखा।

//मैं एक कवि हूं अनजाना

मेरी कोई पहचान नहीं

मेरी वाणी में ओज नहीं

मुझको शब्दों का ज्ञान नहीं।//

 

पहली रचना स्वभाव में जितनी गंभीर थी उसके उलट उनकी दूसरी कविता हास्य से सबको सराबोर कर गयी। उनकी इस क्षमता ने हम सबको मुग्ध कर दिया। उनकी दूसरी कविता का शीर्षक था ‘सर्वगुण सम्पन्न पति’। इसमें एक स्त्री द्वारा काने, लंगड़े, लूले, हकलाने वाले व्यक्ति से शादी करने के कारणों को रेखांकित किया गया था।

//वो काने हैं,

इसलिए पक्षपात से

हैं बेखबर से।

उनकी बहन हो,

मां हो या मैं हूं

देखते हैं सबको

एक नजर से।//

अब बारी थी श्री केवल प्रसाद जी की। इस बार केवल जी ने भी अपना एक नया रूप सबके सामने रखा। उनके द्वारा प्रस्तुत छंदों ने सबका मन मोह लिया। वर्तमान स्थितियों पर उनका व्यंग्य सटीक था।

//अंग्रेजों को मात देते रहे हैं

गद्दारों का बोझ ढोते रहे हैं

सम्मानों की राह रोते रहे हैं

भ्रष्टाचारी देश खाते रहे हैं//

इसके उपरान्त केवल जी ने लगातार कम होती पानी की उपलब्धता को लेकर कुछ दोहे व छंद प्रस्तुत किए।

//नदिया जल घाट सभी सिमटे, अब ताल दिखे मटमैल-हरी।
यह जेठ तपाय रही धरती, अब खेत धरा चिटकी बिफरी।।
जन-जीव-अजीव थके हॅफते, नहि छांव मिले मन प्यास भरी।
नभ सूरज तेज घना चमके, धधके धरती तब आग झरी।।//

 

अब बारी थी श्री नन्दलाल शर्मा ‘चंचल’ जी की। चंचल जी ने सर्वप्रथम भगवान श्री कृष्ण जी का आहवाहन करते हुए उनकी चरण वंदना में कुछ छंद प्रस्तुत किए। इन छंद की भक्ति धारा में उपस्थित सभी लोग बह गए। इसके उपरान्त उन्होंने वर्तमान देशकाल पर कटाक्ष करते हुए दो छंद प्रस्तुत किए।

//वक्त था कि जिन्दगी के जीते गए सारे दांव,

वक्त है कि जिन्दगी लोग हारने लगे।

वक्ता था कि पास उबारता था गंगनीर,

वक्त है कि गंगा मां को लोग तारने लगे।

वक्ता था कि पीत वस्त्र धारते थे संत जन

वक्त है कि दुष्ट संत वेश धारने लगे।

वक्त था कि कृष्ण ने दबाये राधिका के पांव

वक्त है कि प्रेमिका को प्रेमी मारने लगे।//

चंचल जी के सस्वर पाठ ने काव्य गोष्ठी को पूरे शबाब पर पहुंचा दिया था। अब चंचल जी ने अपने दो गीत प्रस्तुत किए। उनका पहला गीत था-

//इतना प्यार दिया है तुमने

जीवन को आधार मिल गया

इतना साथ दिया है तुमने

सांसो को विस्तार मिल गया।//

उनके दूसरे गीत ने एक बार फिर सबको मोहित कर लिया-

//राहों में भीड़ की कतारें

चेहरों पर फैला सन्नाटा

संस्कार भूल रहे सारे

हमने तो सीख लिया टाटा।

 

शहरों की सड़कों पर चलना अब मुश्किल है

ज्यादातर लोगों को ज्ञात कहां मंजिल है

कहां गयीं चन्दनी बहारें

खोज रहे दाल और आटा।

संस्कार भूल रहे सारे

हमने तो सीख लिया टाटा।//

इसके बाद मंच संचालक द्वारा डा0 आशुतोष बाजपेयी को कविता पाठ हेतु आमंत्रित किया गया। डा0 बाजपेयी ने अपने सस्वर छंद पाठ व गीत द्वारा काव्य गोष्ठी को रंगों से सराबोर कर दिया। उन्होंने राष्ट्र के सामने उपस्थित चुनौतियों को रेखांकित करते हुए कहा-

//राष्ट्र स्वाभिमान की प्रतीक है ध्वजा त्रिवर्ण किन्तु अग्नि वर्ण केतु का रहा न मान है

द्रोह की प्रवृत्ति द्रोह को बता रही महान और दिव्य भारतीयता रही न ध्यान है

अन्धकार का प्रसार हो रहा अपार बन्धु मानवीय मूल्य का न लेश मात्र ज्ञान है

राष्ट्रवाद का झुका हुआ निरीह शीश देख राष्ट्रद्रोह का यहाँ तना हुआ वितान है//

चीन की घुसपैठ का सरकार द्वारा कड़ा विरोध न जताने का क्षोभ उनके इस छंद में व्यक्त हुआ-

//क्यों नपुन्सकी प्रवृत्ति का प्रसार बार बार, और राष्ट्र शत्रु हौसले लिए बड़े बड़े

अंडमान के दिए गए उसे अनेक द्वीप, रो रहा त्रिवर्ण केतु क्यों दिया बिना लड़े

भीरु संसदीय कार्यपालिका बनी अपार, प्रश्न तो महत्त्वपूर्ण आज ही हुए खड़े

त्याग लोकतन्त्र वीर हाथ में संभाल राज्य देश के निमित्त दे विधान भी कड़े कड़े//

मां के लिए उसकी संतान कितनी महत्वपूर्ण होती है, यह उनके छंद से जाहिर हुआ।

//पुलक उठा था तन मन अंग अंग मेरा जब प्रिय पुत्र गर्भ मध्य तू समाया था

पद जननी का किया तूने ही प्रदान मुझे थी अपूर्ण पूर्ण मुझे तूने ही बनाया था

हँस हँस के सदैव लोरियां सुनाईं तुझे निज तुष्टि हेतु तुझे वक्ष से लगाया था

जग कहे ऋणी पुत्र को सदैव माँ का किन्तु ऋणभार तूने पुत्र मुझपे चढ़ाया था//

आशुतोष जी ने दोहे और सवैया से निर्मित एक गीत भी प्रस्तुत किया।

अब केवल प्रसाद जी द्वारा मंच संचालन कर रहे श्री आदित्य चतुर्वेदी को कविता पाठ हेतु आमंत्रित किया गया। रामलीला मंचन में सीता हरण के दृश्य का वर्णन करते हुए उनके व्यंग्य की छींटें कुछ इस तरह श्रोताओं पर पड़ी-

//रावण ने दी सफाई

लंका गई जलाई।एक अपहरण में

मेरे खानदान का नाश हुआ

अब ऐसा नहीं होगा

जैसा मैं चाहूंगा वैसा होगा

उसने डायरेक्टर को उठाया

सीता की जगह

उसीको बन्दी बनाया।//

इसके उपरान्त मंच संचालक द्वारा श्री शर्देन्दु जी को कविता पाठ हेतु आमंत्रित किया गया। अपने पेशे के चलते प्रकृति के लगातार संपर्क में रहने वाले शर्देन्दु जी की कवितायें जहां प्रकृति के स्पर्श का श्रोता को एहसास कराती हैं वहीं मन को भावों से ओत प्रोत करती हैं। उनकी पहली रचना सभी के मन को मुग्ध कर गयी।

//जब पवन चले औ’ किलक उठे

कलियों का दल इठलाकर,

जब तरु की शाखों में जाग उठे

उन कोमल पत्रों का मर्मर,

जब ओस बिंदु को मिलता हो

तृण का कम्पित अवलम्बन –

बंधु तभी मुखरित होता है,

यह जग, जीवन, अंतर्मन.

जब सांझ ढले इस क्लांत धरा पर

क्षितिज रंजित हो शर्माकर,

शांत नदी के वक्ष:स्थल पर

लहर थमे जब उठ उठ कर,

जब पीड़ा आनंद बने, हो व्याप्त भुवन में हँस हँस कर –

हे नाथ समाधित होता है तब,

तुममें यह मन, तुममें यह तन.//

प्रेम के रस में पगी उनकी दूसरी कविता ने भी सबका मन मोह लिया।

//इतने में मुनिया आ बैठा,
उन हरित नव शाखों पर
देखा उसने इधर-उधर,
कुछ सहम, ठिठक कर और ठहर कर.

ठहर गयी तुम, ठहर गया मैं,
वातावरण निस्पंद मौन था
अंदर – बाहर के बीच द्वार पर,
देता यह दस्तक कौन था !//

अब आहवाहन हुआ मुख्य अतिथि श्रीमती कुंती जी का। मारीशस में पली कुंती जी के उच्चारण में अब भी कहीं कहीं फ्रेंच भाषी होने का पुट मौजूद है। इसके बावजूद वे जिस तरह से हिन्दी भाषा बोलती हैं और धारा प्रवाह कविता पाठ करती हैं वह श्रोता को मंत्रमुग्ध करता है। राम के प्रति शबरी के प्रेम को रेखांकित करती उनकी कविता ने सबको भक्तिभाव में डुबो दिया।

//मेरा राम आयेगा

नित्य मुँह अंधेरे फूल चुन चुन

गली आंगन थी रही सजाए

एक आस एक चाह लिये

कही शबरी. ‘मेरा राम आएगा’

शाम ढल जाती सूरज थकता

देकर अंतिम किरण जाताए

एक अटूट विश्वास बढ़ाताए

कहती शबरी. ‘मेरा राम आएगा’

बचपन गया, जवानी बीती

पलक बिछाए राह निहारती,

प्रौढ़ा दिनभर मगन रहती

कहती शबरी. ‘मेरा राम आएगा’//

 

सबसे अंत में आहवाहन हुआ कार्यक्रम के अध्यक्ष श्री प्रदीप कुशवाहा जी का। अपनी विशिष्ट मस्तमौला स्वभाव के अनुरूप प्रदीप जी का कविता पाठ सरस प्रवाहित होने लगा। शहरी जीवन से उकताए मन की गांव की ओर ललक उनके गीत में साफ परिलक्षित हुई।

//बीती बातें याद कर मुस्कुराना अच्छा लगता है

वो गांव अपना यादकर ये शहर पुराना लगता है

मेड़ पर गिरते पड़ते हम छुप जाते थे खेतो में

नदी किनारे बनाते घरौंदे मिटाते थे रेतों में

बरसते पानी में वो छपछपाना अच्छा लगता है

बीती बातें यादकर मुस्कुराना अच्छा लगता है

 

सांझ ढले लौटते पग, घुंघरू की छन छन आवाज

सन्नाटे को चीरते दूर तलक झींगुर के वो साज

बदल गया सब कुछ इतना, अब अनजाना लगता है

बीती बातें यादकर मुस्कुराना अच्छा लगता है//

कार्यक्रम के अंत में मारीशस की चाय की चुस्कियों के बीच कई तरह के स्वादिष्ट बिस्कुट और दालमोठ के नाश्ते ने काव्य गोष्ठी के आनंद में चार चांद लगा दिए।

कुंती जी व शर्देन्दु जी को इतने अच्छे आयोजन के लिए धन्यवाद ज्ञापन के उपरान्त हमसब अगले महीने फिर एकत्रित होने के वादे के साथ एक दूसरे से विदा हुए।

************************                                                  

- बृजेश नीरज

 

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Replies to This Discussion

आदरणीय अरूण जी आपका हार्दिक आभार! हमसब आपके सतत मार्गदर्शन और आशीष के आकांक्षी हैं।
सादर!

आदरणीय बृजेश जी, सादर अभिवादन! सचित्र और सुगठित विवरण प्रस्तुति हेतु आपका आभार!

आदरणीय जवाहर जी आपका हार्दिक आभार!

गोषअठी की रपट पढ़कर अच्छा लगा!

गुरूदेव आपका आशीष पाकर मन प्रसन्न हो गया। यूं ही आशीष बनाए रखिए!

आदरणीय बृजेश जी काव्य गोष्ठी की इतनी बढ़िया रिपोर्ट साझा करने के लिए आपका हार्दिक आभार । आदरणीया कुंती जी व आदरणीय शारदेन्दु जी बधाई के साथ आप सभी को आयोजन की सफलता बधाई ।

आदरणीया अन्नपूर्णा जी आपका हार्दिक आभार!

आदरणीया, आपकी अनुपस्थिति से आयोजन कुछ हद तक असम्पूर्ण रहा. बृजेश जी और अन्य सभी मित्रों के अथक प्रयास से दो काव्य-गोष्ठी का आयोजन हो चुका है अब तक. मुझे विश्वास है कि यह प्रक्रिया निर्वाध चलती रहेगी और सब लोगों के सहयोग तथा आशीर्वाद से लखनऊ चैप्टर उत्तरोत्तर उत्कृष्ट साहित्य प्रस्तुत करने में सफल होगा. आभार. 

आदरणीय शारदेन्दु जी आपके स्नेह का शुक्रिया । आयोजन निर्बाध रूप से चलता रहे और हम सब मिल कर ओ बी ओ के लखनऊ चैप्टर को आगे बढाते रहे यही अभिलाषा है । सादर ।

इस रिपोर्ट को मैं परसों दस तारीख को ही देख लिया था. लेकिन अति व्यस्तता तथा पटना के प्रवास के दौरान नेट का अतिमंद होना इस पर टिप्पणी करने से वंचित रखा. रिपोर्ट की भूमिका अत्यंत विशद और तार्किक है. कहना न होगा कि साहित्य मनस रंजन के लिए भी है किन्तु यह केवल मनस रंजन नहीं. भाव-सप्रेषणीयता एक अलग गुण है जो व्यक्ति से कुछ विशेष तरह की मांग करता है. सभी साहित्यकार (इसे रचनाकार पढ़ें) भावुक होते हैं किन्तु हर भावुक रचनाकार हो ही यह नहीं होता. भाव-संप्रेषण शब्द-साधना की मांग करता है. यही शब्द-साधना स्वाध्याय की पहली सीढ़ी है.

लखनऊ की मासिक गोष्ठियाँ रचना-पाठ के लिए एक सुलभ स्थान हों यह आवश्यक है किन्तु इनकी भूमिका इसके आगे की भी तय हो. ऐसा न हो कि कुछ रचनाकार भावुक शब्दावलियों से अँटी ’तथाकथित रचनाओं’ को प्रस्तुत करने का एक सुलभ स्थान पा जायें. और आगे सुधार की सलाह पर बतकहियों का दौर चलाने लगें.  इस चैप्टर को आने वाले दिनों में रचना-संस्कार का दायित्व अपने हाथों में लेना है. वैसे इसके लिए भी समय है.

समस्त प्रतिभागियों और स्थानीय ओबीओ टीम को मेरी हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ.शुभेच्छाएँ.

आदरणीय सौरभ जी आपका हार्दिक आभार! आपके मार्गदर्शन से लखनऊ चैप्टर उसी दिशा में कार्य करने का प्रयास करेगा जिसकी ओर आपने इंगित किया है। अभी प्रयास है इस परिक्षेत्र के सभी ओबीओ सदस्यों को एकजुट करने का। अगले आयोजन से आपके द्वारा इंगित दिशा की ओर भी कार्य करने का प्रयास हम सब करेंगे।
सादर!

हार्दिक धन्यवाद बृजेश भाईजी.

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