(1). अनीता शर्मा जी
नया सवेरा
बच्ची को पालने में रखकर मालती बिना एक बार भी पीछे देखे चलती चली जा रही थी । उसके दिमाग़ में भावना व हालात के बीच महासमर चल रहा था ।आज हालात ने भावना पर विजय पा ली थी । इसीका परिणाम था कि आज अपनी बच्ची को अपने ही हाथों पालन गृह में छोड़ के जा रही थी ।बेटे की चाह में यह मालती की पाँचवीं बेटी थी । यह निर्णय मालती ने बच्ची के जन्म से पहले ही ले लिया था ,बेटा हुआ तो ठीक नहीं तो वो उसे शिशु पालन गृह छोड़ आएगी ,ग़रीबी के कारण पहले ही खाने के लाले थे । तभी उसे लगा कोई उस पुकार रहा है ।उसने अनसुना करना चाहा लेकिन वह आवाज़ मालती के निकट आ चुकी थी, "मालती! कहाँ भागी जा रही हो?" ..."अरे, मेमसाब आप यहाँ...कैसे ?"...."पहले तू बता इस हालत में कहाँ भागी जा रही है, मैं तेरे घर गई थी...वहाँ तू नहीं मिली तो तुझे ढूँढते-ढूँढते यहाँ तक आ गई।" बस मालती फूट पड़ी, सारी मन की सुना दी, "मेमसाब मैं इस बच्ची को नहीं पाल सकती ,घर वालों के दबाब में मैँने एक बच्ची का जीवन ख़राब कर दिया ।" यह सब सुन मालती का कलेजा काँप गया ,क्योंकि शादी के दस साल बाद भी उनके संतान नहीं थी और इधर मालती अपनी ही बची को पालना गृह छोड़ आई थी तभी मेमसाब ने मालती के सामने एक प्रस्ताव रखा, "तू यह बच्ची क़ानूनी रूप से मुझे गोद दे दे ,उसका लालन-पालन तू ही करना मुझे जीने का सहारा मिल जाएगा और तुझे भी सुकून ।"....अब दोनों के जीवन में नया सवेरा था ।
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(2). शेख़ शहज़ाद उस्मानी जी
रचना-प्रक्रिया
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"रचना-प्रक्रिया ... रचना-प्रक्रिया! क्या तमाशा मचा रखा है तुम लोगों ने, ऐं!" उसकी ही क़लम मानो उसे ही धिक्कार रही थी। उसने पहले तो एक नज़र अपनी डायरी के पन्नों पर डाली। फ़िर उसने अपने बेतरतीब कमरे की दीवारों और टेबल पर सजे-धजे से फ़्रेमों में जड़े साहित्यिक सम्मान प्रमाण-पत्र और स्मृति चिह्न आदि पर नज़र डाली। अब वह अपनी प्रकाशित पुस्तकों पर सरसरी दृष्टि दौड़ाता हुआ वापस अपनी प्रिय क़लम को निहारने लगा।
"संतोष मिल रहा होगा न! यही है तुम्हारी रचना-प्रक्रिया! इनमें मैं नहीं, तुम हो; तुम ही तुम तो हो!" लेखनी कुछ ऐसा ही उससे कह रही थी। उसके अंतर्मन को उद्वेलित कर रही थी।
"साहित्य समाज का दर्पण होता है! जो मैंने समाज में देखा-सुना और जो अनुभव किया, उसे ही मैंने गुना और साहित्यिक विधाओं में बुना! संतुष्ट तो तुम्हें भी होना चाहिए कि तुमने मेरी अनुभूति, कल्पना और साहित्य सृजनशीलता को उन विधाओं में पिरोकर मुझे साहित्य जगत में इतना ऊँचा मुकाम हासिल कराया, मीडिया में लोकप्रियता दिलाई और तुम गौरवान्वित हुईं!" यह सोचते हुए उसने अपनी उस प्रिय क़लम को चूमकर कमीज़ की बायीं तरफ़ ज़ेब में रखा और डायरी का वह पन्ना खोलकर पढ़ने लगा, जिसपर उसकी ताज़ा रचना अभी सृजन प्रक्रिया से गुज़र रही थी, अधूरी थी! तभी वह क़लम ज़ेब से टपक पड़ी। उसने उसे उठाया।
"क्यों उठा रहे हो मुझे! अपनी रचनाओं में तो तुम मुझे गिराते ही रहे हो! कभी नेताओं के मुरीद, तो कभी धर्म-गुरुओं के मुरीद और अब तो पुरुष-मानसिकता के मुरीद बनकर अनाप-शनाप सा लिख जाते हो; बिक जाते हो! अब तो तुम इतने भी गिर गए कि महिलाओं पर शृंगार रस की रचनाएँ लिखते-लिखते तुम उनके गुप्तांगों पर भी रचना-प्रक्रिया आजमाने लगे! धत तेरे की! क्या यही है तुम्हारी समाज-सुधार या नव-जागृत-समाज-रचना-प्रक्रिया, ऐं! गौरवान्वित तो तुम स्वयं को समझ रहे हो विकृत रचना कर्म में वाह-वाही हासिल करके जनाब!"
"यह मेरी क़लम बोल रही है या मेरी ही अंतरात्मा; जो भी हो, मुझे आज झकझोर रही है; आइना दिखा रही है!" यह सोचते हुए यही शब्द उसने अपनी डायरी के अगले पन्ने पर लिख लिए। क़लम उसकी दायीं तर्जनी और अँगूठे के बीच में फ़ंसी हुई सीधे डायरी के पिछले पन्नों का ख़ून कर रही थी, जहाँ नारी की योनि का संवाद पुरुष के लिंग से कराया गया था। उनकी सक्रिय भागीदारी से यौन-सुख-सृजन और नव-मानव-रचना-प्रक्रिया के रचनात्मक कर्म या इसके विपरित बढ़ रहे दुष्कर्म; रिश्तों और मर्यादाओं की धज्जियां उड़ाते हुए उनके बीच की तू-तू-मैं-मैं और आरोप-प्रत्यारोप तथाकथित साहित्यिक विधाओं में शाब्दिक हो रहे थे।
"जब जागो प्रिय, तभी सबेरा! अपनी अज़ीज़ क़लम की ताक़त को समझो और अपनी रचना-प्रक्रिया को अपने देश की 'नव-समाज-रचना-प्रक्रिया' में समर्पित कर दो; सस्ती लोकप्रियता के लिए नहीं; नव-जागरण वास्ते जनाब!" उसके अंतर्मन ने आज उसे एक नई दिशा दे ही दी।
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(3). बबीता गुप्ता जी
सजगता
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'बजट का किसी को फ़ायदा हुआ हो या नहीं, हम किसानों की तो नैय्या पार लग गई.'
'सही बात कहत हो बड़े भैय्या,दो वक़्त की चाय का तो इंतज़ाम हो गया.'
'और नहीं तो का.सुबह-शाम की बहू की चिक-चिक भी नहीं सुननी पङेगी.'
'वो सब ठीक हैं, पर इसमें झंझट फसेगा,' तकलीफ़ भरी लम्बी साँस खीचते हुए बड़े भैय्या माथा पकङ लिए.
'जमा रुपया पर दोनों बेटा करेंगे, हाथ कितना लगेगा?'
'जामे का मुश्किल.खेती का हिस्सा बाँट कर दो,लगे हाथ उनका भी कुछ भला हो जाएगा.'
'बेटा तो धन्धा करत.....'
'तुम तो लकीर के फ़क़ीर बनत हो.बहुओं के नाम तो हो सकत हैं कि नहीं?'
'हाँ....हाँ ....सही कहत हो......'दोनों आपस में गुठियाते हुए अपने-अपने घर की ओर ख़ुशी-ख़ुशी जा रहे थे,रोज़-रोज़ के कलह को मिटाने का रास्ता जो मिल गया था।
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(4). तसदीक़ अहमद ख़ान जी
अपना वतन
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भारत और पाकिस्तान के बीच क्रिकेट मैच के दौरान जब पाकिस्तान के विकेट लगातार गिरने लगे तो घर वालों को ख़ुशी में उछलता देख खालिद अहमद झुंझला कर कहने लगे, "मुस्लिम मुल्क के विकेट गिरने पर तुम लोग ख़ुश हो रहे हो?"
बेटे ने जवाब में कहा, "उस मुल्क के सामने हमारा देश है"
खालिद अहमद आँख दिखाते हुए बोले, "भारत में हिंदू हुकूमत है और पाकिस्तान में मुस्लिम, फ़िर भी तुम लोग भारत का साथ दे रहे हो?"
खालिद अहमद की बीवी बीच में बोल पड़ीं," आप उस मुस्लिम मुल्क की हिमायत कर रहे हैं जहाँ आज भी भारत से गए मुसलमानों को मुहाजिर कहा जाता है"
बीवी की बात सुनकर खालिद अहमद कुछ नर्म पड़ते हुए बोले," भारत में भी तो हमारे साथ भेद भाव किया जाता है, हमारे बुज़ुर्गों की बनाई संपत्ति और इस्लाम के नियमों से छेड़ छाड़ की जाती है "
खालिद अहमद की बात सुनकर बेटी कहने लगी," हम भारत का नमक खाते हैं, पानी पीते हैं, यहाँ की हवा में साँस लेते हैं, हर धर्म के लोग प्यार से रहते हैं, कुछ फिरक़ा परस्त ज़रूर माहौल ख़राब करने की कोशिश करते हैं, हमें फख्र है कि हम हिन्दुस्तानी हैं "
बेटी की बात सुनकर खालिद अहमद ख़ामोश हो गए, अचानक टी वी पर शोर सुनाई दिया, खालिद अहमद की नज़र जैसे ही उधर गई वो हँसते हुए उछलकर चिल्ला पड़े," अपना भारत मैच जीत गया "
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(5). मनन कुमार सिंह जी
जागृति
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-मैं तुम्हें छाँह देता हूँ।ज़िंदगी की आस हूँ।.....रहूँगा भी.....।' छतनार बरगद दंभी आवाज़ में प्रलाप कर रहा था। कुछ अशक्त पक्षी घोसलों में बैठे हुए, और कुछ अति दुर्बल पशु उसकी जड़ में बैठे हुए उसे सुन रहे थे।
-औरों के हिस्से की हवा और रोशनी भी तो डकारते हो,भाईजान', एक आवाज़ गूँजी।
-कौन हो तुम?ऐसी बदतमीज़ी की सजा मेरी रिआया देगी तुम्हें',बरगद ग़ुर्राया।
-गुस्ताख़ी माफ़ मेरे भाई!मुझे नीम कहते हैं।ज़रा कड़वा हूँ।
-तभी तो ऐसी नागवार बातें करते हो।
-यह नागवारी आपकी ख़ुदग़र्ज़ी की मिसाल है भाईजान।
-कैसे?
-क्योंकि जिन्हें तुम अपनी रिआया कह रहे हो,उन्हें तुमने उनके पैरों पर खड़े होने की नौबत ही न आने दी।बस कुछ ले-देकर राज करते रहे।
-यह सब ग़लत है।मैंने इन्हें छाँव दी है,ज़िंदगी दी है।
-ज़िंदगी तो परमात्मा की नेमत है।और महज़ छाँव से मज़बूती नहीं मिलती।धूप चाहिए,धूप।और तुम वह पूरा का पूरा डकार जाते हो।
-और तुम?
-मैं आरोग्यकारी हूँ।
-तीखापन से?
-हाँ।मेरा तीखापन सच्चाई का है।ईमानदारी का है,कर्मठता का है।और मेरी गुठली ख़ुद में मिठास सँजो कर रखती है।यह सेहत और सौहार्द्र की प्रतीक है।
-बस करो।मैं ऐरे-ग़ैरों के मुँह नहीं लगता।मेरी जनता मेरे साथ है।पूछ लो।
-नहीं रे नासपीटे,कभी नहीं।हम तो अपने बच्चों की राह देख रहे हैं,जो नीम की गिलौरियाँ लेने गए हैं।वे गिलौरियाँ ही हमारे ध्येय हैं,हमारे चंगापन के कारक हैं', बरगद के दायरे में पड़े पंछी एवं मवेशी समवेत स्वर में आवाज़ लगाने लगे।
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(6). ओमप्रकाश क्षत्रिय प्रकाश जी
सौतेली बेटी
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'' बाबा ! ऐसा मत करिए. वे जी नहीं पाएंगे,'' बेटी ने अपने पिता को समझाने की कोशिश की.
'' मगर, हम यह कैसे बरदाश्त कर सकते हैं कि हमारी बेटी अलग रीतिरिवाज और संस्कार में जीए. हम यह सहन नहीं कर पाएंगे. इसलिए तुम्हें हमारी बात मानना पड़ेगी.''
'' नहीं बाबा ! मैं आपकी बात नहीं मान पाऊँगी. मैं अब नौकरी पर लग चुकी हूँ. उनके सुखी रहने के दिन अब आए है. उन्हें नहीं छोड़ सकती हूँ.''
पर, पिताजी नहीं माने, '' तुम्हें हमारे साथ चलना होगा. अन्यथा हम मुक़द्दमा लगा देंगे. आख़िर तुम हमारी संतान हो ?''
'' आप नहीं मानेगे, '' बेटी की आँख में आँसू आ गए. वह बड़ी मुश्किल से बोल पाई, '' बाबा ! यह बताइए, जब आपने दो भाई और चार बेटियों में से मुझे बिना बच्चे के दंपती को सौंप दिया था, तब आपका प्यार कहाँ गया था ?'' न चाहते हुए वह बोल गई, '' मेरे असली मातापिता वहीं है.''
'' वह हमारी भूल थी बेटी, '' बाबा ने कहा तो बेटी उनके चरण-स्पर्श करते हुए बोल उठी, '' बाबा ! मुझे माफ़ कर दीजिएगा. मगर, यह आप सोचिएगा, यदि आप मेरी जगह होते और आपके जैविक मातापिता आपको जन्म देने के बाद किसी के यहाँ छोड़ देते तो आप ऐसी स्थिति में क्या करते ?'' कहते हुए बेटी आँसू पौंछते हुए चल दी.
बेटी की यह बात बाबा को अंदर तक कचोट गई. वे कुछ नहीं बोल पाए. उनका हाथ केवल आशीर्वाद के लिए उठ गया.
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(7). डॉ० टी.आर सुकुल जी
फिंगर प्रिंट्स
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‘‘ क्यों मिस्त्री! ये पीले रंग वाली वही बिल्डिंग है जिसे हमलोगों ने दिनरात काम करके बनाया था’’
‘‘ हाॅं, इसकी ही नहीं इस कॉलोनी के अनेक मकानों की ईंट ईंट पर हमारी अंगुलियों के निशान मिलेंगे। पर तुम क्यों पूछ रहे हो?’’
‘‘ कुछ नहीं, बहुत साल बाद यहाॅं आया हॅूं इसलिए भूल सा रहा रहा था। वाह! वे भी क्या दिन थे, अपनी मर्ज़ी के बिना इसके भीतर पत्ता भी नहीं हिल सकता था।’’
‘‘ ज़रा अब अन्दर जाकर देखो, वाचमेन गेट के पास भी नहीं फटकने देगा।’’
‘‘ अन्दर जाने की क्या ज़रूरत मिस्त्री! यही क्या कम है कि इसे हमनें बनाया था।’’
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(8). मुज़फ्फर इक़बाल सिद्दीक़ी जी
अंतरद्वन्द
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आहिस्ता-आहिस्ता उसका ख़ौफ़ बढ़ता जा रहा था। दिल तेज़ी से किसी मशीन की तरह धड़क रहा था। हाथ-पैर काँप रहे थे। बहुत जल्द ही एक मज़बूत चार दीवारी के अंदर क़ैद हो जाना चाहता था। उसने फ़ौरन अपने कमरे का रुख़ किया और दरवाज़ा अंदर से बंद कर लिया। अब वैसे तो वह सुरक्षित था लेकिन अभी भी उसके अन्दर का ज्वालामुखी शान्त नहीं था। दरवाज़े के बाहर का मंज़र विवेक की आँखों से दिखाई दे रहा था। वह अपनी आँखें बंद कर बिस्तर पर लेट जाना चाहता था।लेकिन ये क्या?
आँखें बंद करने के बाद तो नवीन के अन्दर जल रही ज्वालामुखी की पीले रंग वाली लपटें लाल- सुर्ख़ हो चुकीं थीं। कानों के चारों ओर एक भयानक सा शोर सुनाई दे रहा था। आग की तपिश उसके चेहरे पर भी पड़ने लगी थी। दिल का तेज़ी से धड़कना जारी था। ये एक अजीब तरह की जागृति थी या एक ख़ौफ़ उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था।
उसका दिमाग़ ख़ामोशी से यह नज़ारा देख रहा था। एक शून्य अवस्था थी। जैसे इसको पता था ये ज्वालामुखी की लपटें, ये चारों तरफ़ शोर की आवाज़ें पहले भी उठती रहीं हैं। आदिकाल से अन्नतकाल तक यही सब होता रहा है। नफ़रत की आग की लपटें इसी तरह उठती हैं। इनमें कुछ भी नया नहीं है।
लेकिन नवीन को तो पूरा विश्वास था पल भर में यहाँ सब कुछ जलकर ख़ाक हो जाएगा। ये शोर करती आवाज़ें कानों के पर्दों को फाड़ने के लिए काफ़ी हैं। क़दम इस संसार से बहुत तेज़ी से भागना चाहते हैं। एक ऐसी दुनिया में जहाँ शान्ति हो शोर शराबे से कोसों दूऱ। लेकिन उठ ही नहीं पाते।
अब क्या होगा बस यही संशय बना रहता है? दिल की धड़कने कैसे सामान्य होंगीं? अगर नहीं हुईं तो दिल कहीं काम करना ही बंद न कर दे?
लेकिन दिमाग़ के पास तो हर चीज़ का इलाज होता है। फिर ये क्यों तमाशाई बना देख रहा है?
तभी अचानक नवीन की आँख खुल जाती है खिड़की से आने वाली, तेज़ हवा के झोंके से उसकी डायरी के पेज पलटने लगते हैं। क़लम टेबल से लुढ़क कर नीचे गिर जाता है।
नवीन सोचता है, "अभी मुझ मैं इतनी चेतना तो बाक़ी है कि मेरी उँगलियाँ इस क़लम को थाम लें।"
और होता भी यही है। उसकी उँगलियाँ क़लम को थाम लेती हैं। फिर क़लम तेज़ी से काग़ज़ पर रक़्स करने लगता है। दिल की धड़कनों, ज्वालीमुखी की लपटों और कानों के पास के शोर को, जैसी ही वह काग़ज़ पर लिखता है। दिमाग़ जो लुप्त अवस्था में पड़ा था अचानक सक्रिय हो जाता है। पानी की तलाश शुरू कर देता है। कहता है, पहले इस अन्दर की ज्वालामुखी की लपटों को बुझाना पड़ेगा तभी बाहर का शोर भी शान्त होगा।
तभी आसमान में बादलों की गड़गड़ाहट तेज़ हो जाती है। लगता है ऊपर वाले ने भी इसके अंतर्द्वंद्व को महसूस कर लिया। एक कला-सा बादल, एक कवच के मानिन्द उस ज्वालामुखी को ढक लेता है। तेज़ बारिश शुरू हो जाती है।
आहिस्ता - आहिस्ता नफ़रत भरी आग की लपटें प्रकृति का सामना नहीं कर पातीं और तेज़ पानी की धारा में बह जातीं हैं। नवीन इससे पहले की अपनी आत्मकथा पूरी करे सब कुछ शान्त हो जाता है।
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(9). आसिफ़ ज़ैदी जी
"जागृति"
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मुझे बहुत ख़ुशी हुई जब मेरी छोटी बेटी ने बताया की कल मौसी के बेटे आए थे और उनके साथ उनका तीन-चार साल का छोटा बेटा अरमान भी था।जिसने बहुत मस्ती की और मैंने उसे एक छोटी-सी चॉकलेट दी जिसे उसने खोलकर मुँह में डाल-ली और छोटी-सी पन्नी हाथ में लेकर मुझसे पूछने लगा डस्टबिन कहाँ है मुझे ये पन्नी डालना है उसमें।
ये सुनकर मैं हैरान भी हुआ और मुझे ये एहसास भी हुआ के वाक़ई पूरी तरह बदलाव लाया जा सकता है। अगर शिद्दत से उसपर कोशिश की जाए।
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(10). कनक हरलालका जी
छुट्टियाँ
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सुबह से विशु बाबू कुछ परेशान से थे । सोच रहे थे कि वरुणा को कैसे बतलाएँगे , उसे दुख होगा । पर ख़बर तो देनी ही थी ।
तभी चाय की ट्रे लिए हुए वरुणा कमरे में आई । उसने अपनी और विशु बाबू की चाय बनाई । चाय पीते पीते विशु बाबू ने वरुणा को ख़बर दी कि बेटे का फ़ोन आया था ।इस बार छुट्टियों में सोमू (सोमनाथ) बैंगलोर से दिल्ली न आ पाएगा । वह छुट्टियों में शिलांग जा रहा था । बेटे के आने के समय ही कुछ समय साथ बिता सकने के लिए बेटी बसुधा भी अपने बच्चों के साथ बम्बई से आ जाती थी ।पर इस बार सोमू के न आने के कारण उसने भी अपना प्रोग्राम कैंसल कर दिया था । साल में एक बार छुट्टियों में ही दोनों बच्चों से वरुणा का मिलना हो पाता था । वरना पति पत्नी अकेले ही रहते थे ।
वरुणा चुपचाप बैठी चाय पीती रही । इधर उसके घुटनों और कमर का दर्द कुछ तकलीफ़ दे रहा था ।कुछ थकान भी हो जाती थी । वैसे तो उसकी दिनचर्या बँधी हुई थी ।सुबह की सैर , दोपहर में आराम , शाम को योगा क्लास , और फिर अपनी साथिनो के साथ कहीं घूम आना , या सत्संग ,या गपशप हो जाती । कभी कोई कभी कोई कुछ बनाकर ले आती ।शाम अच्छी गुज़र जाती ।रात में ईश्वर ध्यान कर अच्छी नींद हो जाती । थोड़ा-बहुत काम था कामवाली और वह मिलकर कर लेते ।
उसके सामने बच्चों के साथ के दिन घूम गए । बच्चे घर आते तो रौनक आ जाती । पर वे उसके पास रहते ही कितने समय थे।
" माँ , हमलोग इतने दिनों पर आएँ है ,फिर समय नहीं रहेगा । आज मित्रों से जाकर मिल आएँ । खाना घर पर ही खाएंगे आपके पास ।"
" माँ ,मैं कुछ दिनों के लिए पीहर हो आऊँ । बच्चे दादी के पास रहना चाहते थे ।उन पर जी भर कर प्यार लुटाइएगा ।"
" माँ ,बच्चों को तुम रख लो तो मैं रमा के साथ पिक्चर देख आऊँ , उसे साल भर बाद मिल रही हूँ ।"
" माँ , आज कुछ दोस्तों को खाने पर बुला लिया है , काफ़ी दिनों बाद मिलें हैं ,शाम कुछ मस्ती हो जाए । "
" बच्चों चलो ,दादी को परेशान मत करो ,पहले होमवर्क कर लो ,जाते ही स्कूल है ।उनसे रात में बात कर लेना ।"
" माँ ,आपके हाथ का गाजर का हलुआ ,समोसे बहुत अच्छे लगते हैं ।आज वही बनाओ । आपके हाथ का ये दस दिन का खाना हम साल भर मिस करते हैं ।"
" माँ ससुराल में तो एक मिनट का समय भी नहीं मिलता । मैं तो पूरे एक सप्ताह आराम करूँगी । "
उसे योग , वाकिंग ,सहेलियाँ , पूरी अस्त-व्यस्त दिनचर्या ,थके शरीर में डोलती नज़र आने लगी ।
उसने अपनी चाय ख़त्म की । उठते हुए विशू बाबू से पूछा ," मैं अपने लिए एक कप चाय और लेने जा रही हूँ । आप भी लेंगे क्या ? फिर मुझे योगा क्लास के लिए जाना है ।
विशू बाबू आश्चर्य चकित से वरुणा का मुँह देखे जा रहे थे , वहाँ दुख तो नहीं था , बल्कि एक शान्ति और आश्वस्ति की झलक ज़रूर नज़र आ रही थी ।
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(11). प्रतिभा पाण्डेय जी
शबरी घर रामचंदर
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रातों रात गाँव में फेमस हो गई गंगू। अख़बार टीवी हर तरफ़ एक ही ख़बर कि कैसे वोट माँगने निकले रामचंदर बाबू उस बूढ़ी के कच्चे मकान में रुके और ख़ुद उसकी रसोई में घुसकर मक्के की रोटी और चटनी लाए और ज़मीन पर बैठकर खाई। अख़बार वालों ने गंगू का नया नाम शबरी दे दिया।' शबरी के घर रामचंदर' किस्म की ख़बरों से अख़बार रंग गए।
"अब तो सबरी माई उस थाली को जड़वा कर कच्ची दीवार में टंगवा ले जिसमें रामचंदर जी जीमे थे। रोटी मिले ना मिले कम-से-कम माई उसे देखकर बाकी उम्र संतोस से तो पेट भर ले। " चाय की गुमठी में बैठे बुज़ुर्ग ने ने कहा।
"क्या कहते हो मास्साब ये डिरामे विरामे काम करेंगे कि नहीं ?" चाय वाले ने गाँव के स्कूल के मास्टर साहब को चाय पकड़ाते हुए प्रश्न दागा।
" शबरी हो या कोई और सबकी आँखें खुली हैं भैया। अब ना भरमा सकता कोई ।" मास्टर साहब ने आवाज़ करते हुए चाय सुड़की।
" पर डिरामा है ज़बरदस्त । ख़ानदानी अमीर रामचंदर नेता जी , कच्चे घर में बैठकर मोटे अनाज की कच्ची पक्की रोटी खा रहे हैं। और तुम क्यों मुस्कुरा रहे हो भाई ? सामने बैठे क़स्बे के एक अख़बार के युवा संवाददाता के चेहरे पर रहस्य्मय मुस्कान देखकर बुज़ुर्ग ने पूछा।
"नहीं नहीं कुछ नहीं।ला एक चाय और पिला यार बची खुची नींद भी खुले।" युवक की मुस्कान अब और चौड़ी हो गई थी। उसके कानों में वो शब्द गूँज रहे थे जो गंगू ने उससे कल कहे थे। "बेटा , जो रामचंदर जी की थाली में रोटी थी वो हमारे चूल्हे की रोटी तो थी नहीं। अपने साथ ही लाए थे सायद। खेर हमें क्या। इत्ते बड़े पैसे वाले हमारी कुटिया में आए ,ये ही क्या कम है."
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(सभी रचनाओं में वर्तनी की त्रुटियाँ संचालक द्वारा ठीक की गई हैं)