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हास-परहास :मग में बीचो बीच, सिंह दमदार डटा था

मौलिक - अप्रकाशित

खर्राटों के बीच में, सोया आँखें मीच |
पता नहीं किस तरफ से, देह दबाया नीच |


देह दबाया नीच, सींच कर खेत हटा था-
मग में बीचो बीच, सिंह दमदार डटा था |


रविकर मांगे भीख, किन्तु स्वर जाए भर्रा |
निकली लम्बी चीख, थमाती पत्नी खर्रा ||

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Comment

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Comment by Abhinav Arun on March 2, 2013 at 6:32pm
कुछ लिखा तो है आपने पर भावार्थ पकड़ में नही आ रहा ।

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 2, 2013 at 6:01pm

हे दइवा.. .  क्या कह गुजरे, आदरणीय !?

न किया करें ऐसे प्रेषण.. ..

शुभ-शुभ..

Comment by रविकर on March 2, 2013 at 3:59pm

असामान्य मानसिक अवस्था में रचना की गई है-
खीज क्षोभ और हड़बड़ी-
इसीलिए तारतम्य बिगड़ा हुआ है
ऐसी रचनाओं को पोस्ट करने से बचने की कोशिश रहेगी आदरणीय-
सादर -


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 2, 2013 at 3:55pm

ए भाई,  ई त न बुझाया हमको.. . आ जे बझाया है.. ऊ हम बोलेंगे नहीं..   :-))))

अब तनिका अपनी बुझाहट हमहुँओं को बताइये .. 

हा हा हा हा.. . :-)))))))))))

आदरणीय रविकर जी,  इस कुण्डलिया के इंगित वाकई दुरूह निकले मेरे लिए..  

सादर

Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on March 1, 2013 at 7:31pm
आदरणीय रविकर जी!एक धृष्टता करना चाहता हूं।बंधु रचना का कथ्य एवं उद्देश्य मैं नहीं समझ पा रहा हूं।हास परिहास केवल अंतिम पंक्ति में देख पा रहा हूं।कृपया स्पष्ट करने का प्रयास करें।

कृपया ध्यान दे...

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