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उसकी देह अब भी मांसल है / अतुकांत कविता

सोनाली भट्टाचार्य एवं सभी तेजाब पीड़ितों के लिए 

वह एक लड़की थी
उन्नत नितंबों
पुष्ट उरोजों वाली
श्यामल घनेरे केश
बल खाते पर्वतों के बीच
लहराते
लगता बाढ़ की पगलाई नदी
मेघों के मध्य
घाटी में से गुजर रही हो
खुलकर खिलखिला कर हँसती
कई सितार एक साथ झंकृत हो उठते
उसके सपनों में आता
फिल्मी राजकुमार
जिसके साथ वह
गीत गाती झूमती नाचती
फूलों के बाग में
स्कूल कॉलेज से आती जाती
सबकी निगाहों की केंद्र बिन्दु
सबके लिए स्पृह्यनीय
फिर एक दिन
कुछ उछृंखल हाथों ने तोड़ दिये
सितार के तन्तु
सबने ने फेर ली निगाहें
वैसे उसकी देह अब भी मांसल है
नितंब उन्नत हैं
उरोजों में पुष्टता है
पर कोई नहीं रखता अब
उसे पाने की चाहत
उसकी आँखों पर पड़ा है अब
एक बड़ा चश्मा
और चेहरा दुपट्टे से ढँका है ।
.................. नीरज कुमार नीर

मौलिक एवं अप्रकाशित 

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Comment by Neeraj Neer on September 16, 2015 at 8:48am

रचना को स्वीकारने एवं प्रोत्साहन के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीया कांता रॉय जी 

Comment by kanta roy on September 16, 2015 at 12:17am

विचित्र सी विडंबना है ये नारी के नारीत्व की । बेहद संवेदनशील रचना हुई है ये । बधाई स्वीकार करें इस सार्थक रचना के हेतु आदरणीय नीरज कुमार " नीर " जी ।

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