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दादी, हामिद और ईद (लघुकथा) // --सौरभ

हामिद अब बड़ा हो गया है. अच्छा कमाता है. ग़ल्फ़ में है न आजकल !

इस बार की ईद में हामिद वहीं से ’फूड-प्रोसेसर’ ले आया है, कुछ और बुढिया गयी अपनी दादी अमीना के लिए !

 

ममता में अघायी पगली की दोनों आँखें रह-रह कर गंगा-जमुना हुई जा रही हैं. बार-बार आशीषों से नवाज़ रही है बुढिया. अमीना को आजभी वो ईद खूब याद है जब हामिद उसके लिए ईदग़ाह के मेले से चिमटा मोल ले आया था. हामिद का वो चिमटा आज भी उसकी ’जान’ है.
".. कितना खयाल रखता है हामिद ! .. अब उसे रसोई के ’बखत’ जियादा जूझना नहीं पड़ेगा.. जब हामिद वापस चला जायेगा, अपनी बहुरिया के साथ, अपने बेटे के साथ.. "
************************
(मौलिक और अप्रकाशित)

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Comment by Saurabh Pandey on August 4, 2014 at 12:12am

आदरणीय लक्ष्मण प्रसादजी, आपने इस प्रस्तुति पर समय दिया, मेरा कथा-प्रयास फल हुआ.

सादर धन्यवाद


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Comment by Saurabh Pandey on August 4, 2014 at 12:11am

आदरणीया प्राचीजी, इस कथा के कई पहलुओं पर आपने जिस तरह से मनन किया है, वह आपके पाठक का अध्ययन के प्रति गहनता को ही दर्शाता है. आपको लघुकथा के चरित्रों का व्यवहार तार्किक तथा प्रभावी लगा, समझिये, मेरा प्रयास सफल हुआ.
सादर धन्यवाद


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Comment by Saurabh Pandey on August 4, 2014 at 12:07am

आदरणीय सत्यनारायणजी, आपकी सुधी दृष्टि का मैं आभारी हूँ. आपने दो परिस्थितियों में स्पष्ट अंतर बता कर इस लघुकथा के महत्त्व को और विन्दुवत कर दिया है.
सादर धन्यवाद


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 4, 2014 at 12:06am

आदरणीय अखिलेशभाईजी, आपने पात्रों के मनोविज्ञान को जिस सरलता से प्रस्तुत किया है वह आपके अनुभव तथा गहन दृष्टि का ही परिचायक है. यह सही है कि आजकी शिक्षा-पद्धति में नैतिकता के विन्दु अप्रासंगिक हो गये हैं. इसका दुष्परिणाम हर जगह दिख रहा है. समाज में नैतिक चारित्रिक या व्यावहारिक पतन का मुख्य कारण बड़ों के प्रति श्रद्धा तथा छोटों के प्रति स्नेह की कमी ही है. यही विन्दु इस कथा का मुख्य विन्दु है.
आपको प्रयास रुचिकर लगा यह मेरे लिए संतोष की बात है. सादर धन्यवाद


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Comment by Saurabh Pandey on August 4, 2014 at 12:06am

नादिर भाई, आपको कथा के पात्रों का व्यवाहार आस-पास का लगा यह मेरे प्रयास को मिला सम्मान है.
कथा को पसंद करने के लिए हार्दिक धन्यवाद


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 4, 2014 at 12:06am

कहानी पसंद आयी, हार्दिक धन्यवाद सविताजी.

Comment by JAWAHAR LAL SINGH on August 3, 2014 at 9:13pm

क्या प्रतिक्रिया दूँ सर?   बस इतना ही कहूँगा कि कालजयी रचनाओं के पात्र अमर होते हैं, परिस्थिति, समय, के अनुसार ब्यवहार बदल जाते हैं. समय के अनुरूप प्रेमचंद  जयन्ती और ईद के दिन प्रस्तुत यह रचना यादगार बनकर रहेगी. 

Comment by mrs manjari pandey on August 2, 2014 at 8:28pm
किस किस दौर से गुज़रा होगा हामिद। …। बहुत ही भावपूर्ण सुन्दर लघुकथा. आदरणीय बधाई स्वीकारें
Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on August 1, 2014 at 8:21pm

आ0 सौरभ सर जी,    वाह! .....चिमटे से लेकर फ्रूट प्राेसेसर तक नारी की वही कहानी है, कुछ नहीं बदला है। बदला है तो बस! हामिद और समाज, मेले तो माल बन गए हैं।  बहुत ही गंभीर और सार्थक लघु कथा के लिए हृदयतल से बधाई स्वीकारें।

सादर,

Comment by Shubhranshu Pandey on August 1, 2014 at 6:17pm

आदरणीय सौरभ भैया, 

बचपन में इदगाह कथा बहुत सोचने पर मजबूर करती थी और हामिद एक हीरो हुआ करता था.

आज के परिवेश में समाज के बदलते तेवर, जरुरत और अमीना के उसी आत्म संतोष को सुन्दर तरीके से प्रस्तुत किया है आपने.

सादर.

 

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