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दीवाने भी अज़ब हैं वो जो महफ़िल लूट लेते हैं ।
के सिर कदमों में रखते हैं और दिल लूट लेते हैं ।

कि जिन लहरों के तूफानों ने लूटी कश्तियाँ लाखों ,
उन्हीं लहरों के आवेगों को साहिल लूट लेते हैं ।

शाख से टूटकर अपनी बिखर जाते हैं जो तिनके ,
बनाने को घरौंदे उनको हारिल लूट लेते हैं ।

अदब तो दोस्ती का है पर अदायें दुश्मनों सी हैं ,
के हमारा चैन उनके नैन कातिल लूट लेते हैं ।

मोहब्बत करने वालों का ख़ुशी से वास्ता क्या है ,
यहाँ तो दर्द के कतरे भी संग दिल लूट लेते हैं ।

मौलिक व अप्रकाशित

नीरज 'प्रेम'

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Comment by गिरिराज भंडारी on January 9, 2014 at 6:19pm

आदरणीय प्रेम भाई , प्रेम बड़ी चीज़ है , जो बन्धन होते हुये भी आपको बंधन का एहसास नही होने देता , क्योकि प्रेम के वश मे बंधन को स्वीकार किये होते हैं , खुशी खुशी । मेरा आपसे यही निवेदन है , अगर आपको गज़ल विधा से प्यार है तो आपको बंधन का एहसास ही नही होगा , न ही होना चाहिये । और आप सीख भी जल्दी ही लेंगे । लेकिन अगर प्यार नही है तो बोझ समझ कर ग़ज़ल सीखने मे बहुत मुश्किल होगी / आयेगी । मज़बूरी के रिश्ते बोझ ही लगते हैं । आदरणीय वीनस भाई का कहना सही है , निर्बंध हो के भी आप अपने भावों को व्यक्त कर सकते है , गद्य के रूप में , आपने अच्छे से किया भी है !  अगर आप विधा स्वीकारते हैं तो प्रेम से खुशी से स्वीकार करें तभी सीखना सार्थक और सफल होगा ॥ सादर ॥

Comment by विजय मिश्र on January 9, 2014 at 6:14pm
पढ़ने के बाद मन मचलता है ,इस दृष्टि से कविता सार्थक है |बधाई नीरजजी
Comment by वीनस केसरी on January 9, 2014 at 5:53pm

भाई नीरज मिश्रा "प्रेम" जी अगर कविता में आज़ादी के पक्षधर हैं तो वैसा ही लिखिए जैसा ये पिछला कमेन्ट लिखा है ,,
जिस तरह आपने इस कमेन्ट को लिखते समय कोई मात्रा नहीं जोड़ी कोई बंधन नहीं रखा ,, बस भावनाओं को पटल पर प्रस्तुत कर दिया ... ये बहुत अच्छा उदाहरण बन सकता है ... अपनी कविता भी ऐसी ही लिखिए ,, हर बंधन से मुक्त,,, कविता का गणित कठिन ही नहीं बहुत कठिन है ... नियम पेचीदा हैं 

महफ़िल लूट लेते हैं / दिल लूट लेते हैं ... के चक्कर में पड़ कर आप क्यों तुकांतता का बंधन पाले बैठे हैं .... और अगर सच में ये रोग आपको प्रिय है तो फिर इसकी हद से गुज़ारना चाहिये ... बहर को जान समझ लीजिये तो रचना को विधागत संज्ञा प्राप्त हो जाए ... वर्ना ऐसी रचनाओं को जानकारों ने "तुकबंदी" संज्ञा तो दे ही रखी है .... मगर ये संज्ञा अक्सर कवियों के क्षोभ का कारण बनती है
शुभकामनाएं

Comment by Neeraj Nishchal on January 9, 2014 at 5:37pm

आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी
कभी अपनी चतुराई अपनी होशियारी से दूर अपनी बुद्धि के तर्कों और गणित आदि जंजालों
से मुक्त अपने ह्रदय के द्वार पर अपनी निर्दोष अवस्था में अपनी मासूमियत में स्वयं को सुकून
में डुबो देने वाला गायन कला का एक द्वार खोजा था एक गायक कि तरह नही बल्कि एक भावनाओं
को सहेजने वाले किसी कवि कि तरह जहाँ मै पूरी ईमानदारी से खुद को रख सकूँ जहाँ मै हिसाब किताब
के बंधनो से मुक्त रहूँ जहां आकाश में उड़ते हुए किसी पक्षी कि तरह खुद को महसूस कर सकूँ जो दिल में आये
बस गुनगुनाता जाऊँ और सबकुछ भूलकर डूब सकूँ अपनी पंक्तियों को बार बार गाकर अपनी अस्मिता को
खो सकूँ क्यों कि अस्मिता में बहुत पीड़ा पायी मैंने , सोचा नही था जाना नही था यहाँ भी गणित चलता है
यहाँ भी हिसाबों में ही रहना पड़ता है यहाँ भी दायरे हैं यहाँ भी छते हैं यहाँ भी सिमट कर ही रहना होगा
यहाँ भी अनंत फैलाव नहीं उपलब्ध होता है खैर मैंने आप सबों कि तरह बहुत कुछ सीखने का प्रयास किया है
और आप सब लोगों से ही बहुत सारा लगाव भी हो रखा है आप सब लोगों से । झूठी अन्जानी दुनिया कि भीड़ में आप सब जैसे
कुछ लोग जाने पहचाने लगते हैं इस लिए देखना चाहता हूँ कविता का गणित भी सीख कर और सतत प्रयास भी करूंगा
फिलहाल मैंने कि कोशिश कि है आप देख लें और अगर गलत बनी हो तो फिर कोशिश करूंगा। ……।

दीवाने भी अज़ब हैं वो जो महफ़िल लूट लेते हैं ।
2222 2122 2222 2122

Comment by Neeraj Nishchal on January 9, 2014 at 5:04pm

आदरणीय सम्पादक जी बहुत बहुत अनुग्रहीत हूँ आपसे और मै बहुत शीघ्र ग़ज़ल कक्षा में इस दोष का अध्ययन करके
ठीक करने का प्रयास करूंगा सादर

Comment by Neeraj Nishchal on January 9, 2014 at 5:04pm

आदरणीया अन्नपूर्णा जी बहुत बहुत धन्यवाद ।

Comment by Neeraj Nishchal on January 9, 2014 at 5:01pm

आदरणीय बृजेश जी बहुत बहुत शुक्रिया ।

Comment by Neeraj Nishchal on January 9, 2014 at 5:00pm

आदरणीय आमोद जी बहुत बहुत आभार ।

Comment by Neeraj Nishchal on January 9, 2014 at 4:57pm

आदरणीया कुंती जी बहुत बहुत धन्यवाद ।

Comment by Neeraj Nishchal on January 9, 2014 at 4:55pm

आदरणीय कविराज बुंदेली जी बहुत बहुत आभार ।

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