वह माटी थी पर नहीं थी वह ...जिसे कुम्हार ने माजा चाक पे चढ़ाया, गढा, चमकाया बाजार में बिठाया ... वह तो किस्मत की धनी थी पर वह ? वह तो सिर्फ उसके बगिया की माटी थी उसके पैरों तले गाहे बगाहे आ जाती ... कुचली जाती रही .. टूटती रही, खोदी जाती रही, तोडी जाती रही ..... और बदले में रंगबिरंगे फूलों से फलों से अपनी हरियाली को सजा कर बगिया को महकाती रही .... यही तो था उन् दोनों के अपने अपने हिस्से का आसमान .. लेकिन उन् दोनों के लिए एक आसमान से इतर एक दूसरा आसमान किसी बंद दरवाजे से बाहर भीतर खुलता था .. एक वह जिसकी चाहत थी टूट फूट कर बगिया की मिट्टी हो जाने की .. कैसे तोड़ता कुम्हार अपने शिल्प को जिसे गढा था उसने पुरजोर कोशिशों से अपनी रूह रख कर उस माटी में .. और एक वह जो बगिया से बाहर बाजार की चमक में दमकना चाहती थी एक आकार ले कर चाक में चढ़ना चाहती थी ... कुन्हार कैसे करता उस माटी को बाजार में जिसकी खुशबू में वह जीता था ... आखिर कुम्हार की चाक बंद हो गयी, बगिया की देखभाल भी बंद हो गयी .. वह कुम्हार दोनों के लिए न्याय गढते गढते मिट गया उन् दोनों पर ... और जल्द ही एक दिन खुद माटी हो गया .... ... उस दिन देखा था लोगो ने एक आसमान को टूट कर गिरते हुए ... उसके मेरे अभिप्राय में बिफरती माटी गुमनामी के अंधेरों में ख़ामोशी की तहों में सिमट गयी सदा के लिए .......... ~nutan~
मौलिक अप्रकाशित
Comment
वाह ! बहुत सुन्दर !
बहुत सुन्दर भाव ! शुभकामनाये
आहुत सुन्दर अभिव्यक्ति .. बधाई आ० नूतन जी
गहन भाव-
आभार आदरेया-
बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय माथुर जी और जोशी जी, मेरी इस रचना तक आने के लिए .. और खुशी हुई कि यह रचना आपको अच्छी लगी ..
बहुत सुंदर एवं भावनात्मक रचना.... हार्दिक बधाई हो आपको आदरणीया नूतन जी...
कैसे तोड़ता कुम्हार अपने शिल्प को जिसे गढा था उसने पुरजोर कोशिशों से अपनी रूह रख कर उस माटी में ..
आदरणीया डॉ नूतन जी नमस्कार, संवेदनाओं की गहराई में डूब कर लिखी रचना के लिए आपको बधाई ।
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