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अनन्तता में

धकेल कर मुझ निर्वसना को

कोई चुरा ले गया है मेरे शब्द..

मेरी ध्वनियाँ... मेरे चित्र..

जा बैठा है ना जाने

किस कदम्ब की शाख पर

कैसे पुकारूँ सखी...मैं तो गई... !!

(मौलिक व  अप्रकाशित )

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Comment by Vasundhara pandey on August 27, 2013 at 6:46am

आदरणीय सौरभ सर जी ..

आदरणीय प्राची जी ...आप दोनों की टिप्पड़ी ने अविभूत कर दिया ...पोस्ट से ज्यादे खूबसूरत आप दोनों की टिप्पड़ी ने मन मोह लिया ...बहुत-बहुत आभार..धन्यवाद आप सबको...!


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on August 14, 2013 at 3:32pm

कथ्य सान्द्र, भाव प्रवण, बहुत खूबसूरत शब्द चित्र..

अनंत की निःशब्दता और लुका छुपी.. रोमांचित करता आनंदप्रदायी दृश्य 

बहुत बहुत बधाई आ० वसुन्धरा पाण्डेय जी 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 14, 2013 at 2:51pm

उद्दात किन्तु संयत !  रचनाकर्म में प्रस्तुत हुई अनुभूतियाँ ऐसी हैं जो अभिव्यक्ति की राह पा कर भी अभिव्यक्त नहीं हो पातीं. 

मैं तो गई..  ने रोमांचित कर दिया. आपके प्रयास को मेरी शुभकामनाएँ.

अनन्तता क्या है ? अनन्त स्वयं में संज्ञा है, फिर प्रत्यय ता की आवश्यकता क्यों पड़ी ? 

वैसे अच्छा लगा और अर्थ भी स्पष्ट हुआ है.. जो निवेदन था,  संप्रेषित हुआ.. ..  :-)))))

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